राफेल सौदे को घोटाला बताने वालों और कांग्रेस की मानसिकता पर प्रकाश डालते हुए इस सौदे से जुड़ी तथ्यात्मक जानकारी मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ और आप सभी से उम्मीद करता हूँ कि इसे लेख का लिंक सभी सोशल साइट्स पर अपने मित्रों से आप लोग साझा करेंगे।
राहुल गांधी और कांग्रेस लगातार राफेल सौदे पर कीमत बढोत्तरी को मुद्दा बनाकर देश को मूर्ख बनाने की साजिश हमेशा की तरह कर रहे हैं, लेकिन यह अचंभित करने वाला कृत्य है क्योंकि यदि वास्तविक कीमत और स्पेशिफिकेशन आदि बताई गई विमान की तो दुश्मन आसानी से जान लेगा की विमान के बेसिक माडल मे क्या क्या अतिरिक्त तकनीकी, उपकरण और विमान मे कैसे हथियार लगे हैं। रक्षा सौदों से जुड़ी जानकारियां हमेशा क्लासिफाइड होती हैं और इसकी गोपनीयता भंग होने पर देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती हैं इसी वजह से यूपीए सरकार ने भी पहले कभी इस तरह की जानकारियां सार्वजनिक नही की हैं, और संसद में तत्कालीन रक्षामंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी इसे सार्वजनिक करने से मना किया था।
सबसे अहम बात हैं कि रक्षा सौदे की जानकारी उजागर होने से देश की युद्ध नीति खोखली होती है यह 60 वर्षों से सत्ता मे रह चुकी कांग्रेस भलीभांति जानती है फिर भी एैसा कृत्य समझ से परे है।
परन्तु ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार ने संसद मे कोई विवरण नही दिया है, सरकार ने नवंबर 2016 में संसद को प्रति विमान की कीमत का उल्लेख किया था जो कि 670 करोड़ रुपये थी, हाँ अतिरिक्त तकनीकी तथा हथियारों के विषय मे ना बताया था ना ही जरूरत थी, क्यूंकि संसद मे भी कैसे कैसे लोग चुन कर जाते रहते हैं यह देश जानता है।
राहुल गांधी और कांग्रेस लगातार ये आरोप लगा रहे हैं कि मोदी सरकार राफेल विमानो के लिए ज्यादा पैसे दे रही है तो यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि कतर ने 24 राफेल विमान 6ं.4 बिलियन यूरो मे खरीदा है इसका मतलब प्रति विमान की कीमत 262 मिलियन यूरो हुई लेकिन इसमे "आफसेट" का कोई प्रावधान नही था सिर्फ प्रशिक्षण और लाजिस्टिक का ही पैकेज था, मिस्र ने भी 24 राफेल 5.2 बिलियन यूरो में खरीदे हैं जिसमें उसे अतरिक्त कुछ नहीं मिला, जबकि भारत ने 36 राफेल 7.8 बिलियन यूरो मे खरीदा जो की 216 मिलियन यूरो प्रति विमान पड़ता है और इसमे भी तकनीकी मे बहुत से परिवर्तनों के साथ 50% आफसेट का भी प्रावधान है। मतलब राफेल की निर्माता कंपनी दासौ इस कीमत का 50% भारत की किसी कंपनी के साथ मिलकर पुन: निवेश करेगी अथवा भारत से उपकरण खरीदेगी, इसका मतलब हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में 50% पैसा वापस आएगा और नए रोजगार के लिए भी सम्भवना बनेगी।
अब बात करते हैं रिलांयस की तो इसमे भारत सरकार कुछ नहीं कर सकती क्यूंकि ये दासौ पर निर्भर करता है कि वो कौन सी कंपनी चुने क्यूंकि विदेशी सरकार कोई सौदा सिर्फ हमारी शर्तों पर नहीं करती है जबकि जरूरत जितनी हमारी है उससे कम उसकी, क्योकि उनका गुणवत्तापूर्ण सामान तो बिक ही रहा हैं फिर वह क्यों वह अपने लिए विपरीत परिस्थितियों वाला अनुबंध हमसे करेंगे? दूसरी बात, जो योग्य होगा उसे अवसर मिलेगा क्योकि यहाँ आरक्षण जैसी व्यवस्था नही हैं कि मजबूरी में अयोग्य लोगो को भी मौका अनिवार्य रूप से मिलेगा। रिलायंस की तरह ही यह अवसर देश की सभी कम्पनियों के पास था जिसकी रुचि थी जो योग्य था उसे अवसर मिला, यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ की रिलायंस का डासो से अनुबंध यूपीए दौर में हुआ था।
हालांकि मोदी सरकार ने 2015 तक लगातार ये प्रयास किया कि फ्रांस की दासौ किसी सरकारी कंपनी को "आफसेट" के लिए चुने परंतु फ्रांस सरकार ने साफ इंकार कर दिया उसका कारण भी था, क्योकि भारत की सरकारी कंपनियों के साथ दुनिया की कोई हथियार निर्माता कंपनी काम करने को तैयार नहीं है 2011 विकीलीक्स खुलासे में अमेरिकी राजदूत ने HAL(हिंदुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड) के बारे में लिखा था की यह भारतीय कंपनी पश्चिम की कंपनियों से 30-40 वर्ष पीछे है और समान की गुणवत्ता तथा उत्पादन को छिपाने के लिए सरकारी अधिकारी लगातार झूठ बोलते हैं जो की सच भी है और हम आप इसे समझ भी सकते हैं, फिर भी मोदी सरकार ने 50% आफसेट में से एक हिस्सा DRDO को दिलवाया है।
और रही बात रिलायंस की तो हममे से बहुत कम लोग जानते हैं कि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस अमेरिका के 100 से अधिक युद्ध पोतों की मरम्मत तथा रखरखाव का कार्य करती है मतलब अनिल अंबानी की इस कंपनी को अनुभव भी जबरदस्त है।
भारतीय वायुसेना की युद्धक क्षमता लगातार कमजोर पड़ती जा रही थी चीन और पाकिस्तान जैसे दुश्मन हमारे सर पर खड़े हैं तब भी देश के गद्दार पूछ रहे हैं कि राफेल ही क्यूँ यूरो फाइटर या अन्य विमान क्यूँ नही तो यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि जब कांग्रेस ने राफेल के लिए सौदेबाजी कर लिया था तो अन्य देशों से बातचीत का कोई बहुत मतलब नही था, रही बात यूरो फाइटर की तो जर्मनी और इटली जैसे देश उसमे परमाणु हथियार लगाने का लगातार विरोध कर रहे थे जबकि राफेल का परमाणु हमला एक साथ तीन अलग अलग जगहों पर हो सकता है जो कि हमारी जरूरत भी है, हां अभी तक फ्रांस के दासौ का मिराज 2000 ही परमाणु हमले के लिए हमारे पास सबसे उपयुक्त विमान है।
राहुल गांधी और कांग्रेस लगातार राफेल सौदे पर कीमत बढोत्तरी को मुद्दा बनाकर देश को मूर्ख बनाने की साजिश हमेशा की तरह कर रहे हैं, लेकिन यह अचंभित करने वाला कृत्य है क्योंकि यदि वास्तविक कीमत और स्पेशिफिकेशन आदि बताई गई विमान की तो दुश्मन आसानी से जान लेगा की विमान के बेसिक माडल मे क्या क्या अतिरिक्त तकनीकी, उपकरण और विमान मे कैसे हथियार लगे हैं। रक्षा सौदों से जुड़ी जानकारियां हमेशा क्लासिफाइड होती हैं और इसकी गोपनीयता भंग होने पर देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती हैं इसी वजह से यूपीए सरकार ने भी पहले कभी इस तरह की जानकारियां सार्वजनिक नही की हैं, और संसद में तत्कालीन रक्षामंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी इसे सार्वजनिक करने से मना किया था।
सबसे अहम बात हैं कि रक्षा सौदे की जानकारी उजागर होने से देश की युद्ध नीति खोखली होती है यह 60 वर्षों से सत्ता मे रह चुकी कांग्रेस भलीभांति जानती है फिर भी एैसा कृत्य समझ से परे है।
परन्तु ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार ने संसद मे कोई विवरण नही दिया है, सरकार ने नवंबर 2016 में संसद को प्रति विमान की कीमत का उल्लेख किया था जो कि 670 करोड़ रुपये थी, हाँ अतिरिक्त तकनीकी तथा हथियारों के विषय मे ना बताया था ना ही जरूरत थी, क्यूंकि संसद मे भी कैसे कैसे लोग चुन कर जाते रहते हैं यह देश जानता है।
राहुल गांधी और कांग्रेस लगातार ये आरोप लगा रहे हैं कि मोदी सरकार राफेल विमानो के लिए ज्यादा पैसे दे रही है तो यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि कतर ने 24 राफेल विमान 6ं.4 बिलियन यूरो मे खरीदा है इसका मतलब प्रति विमान की कीमत 262 मिलियन यूरो हुई लेकिन इसमे "आफसेट" का कोई प्रावधान नही था सिर्फ प्रशिक्षण और लाजिस्टिक का ही पैकेज था, मिस्र ने भी 24 राफेल 5.2 बिलियन यूरो में खरीदे हैं जिसमें उसे अतरिक्त कुछ नहीं मिला, जबकि भारत ने 36 राफेल 7.8 बिलियन यूरो मे खरीदा जो की 216 मिलियन यूरो प्रति विमान पड़ता है और इसमे भी तकनीकी मे बहुत से परिवर्तनों के साथ 50% आफसेट का भी प्रावधान है। मतलब राफेल की निर्माता कंपनी दासौ इस कीमत का 50% भारत की किसी कंपनी के साथ मिलकर पुन: निवेश करेगी अथवा भारत से उपकरण खरीदेगी, इसका मतलब हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में 50% पैसा वापस आएगा और नए रोजगार के लिए भी सम्भवना बनेगी।
अब बात करते हैं रिलांयस की तो इसमे भारत सरकार कुछ नहीं कर सकती क्यूंकि ये दासौ पर निर्भर करता है कि वो कौन सी कंपनी चुने क्यूंकि विदेशी सरकार कोई सौदा सिर्फ हमारी शर्तों पर नहीं करती है जबकि जरूरत जितनी हमारी है उससे कम उसकी, क्योकि उनका गुणवत्तापूर्ण सामान तो बिक ही रहा हैं फिर वह क्यों वह अपने लिए विपरीत परिस्थितियों वाला अनुबंध हमसे करेंगे? दूसरी बात, जो योग्य होगा उसे अवसर मिलेगा क्योकि यहाँ आरक्षण जैसी व्यवस्था नही हैं कि मजबूरी में अयोग्य लोगो को भी मौका अनिवार्य रूप से मिलेगा। रिलायंस की तरह ही यह अवसर देश की सभी कम्पनियों के पास था जिसकी रुचि थी जो योग्य था उसे अवसर मिला, यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ की रिलायंस का डासो से अनुबंध यूपीए दौर में हुआ था।
हालांकि मोदी सरकार ने 2015 तक लगातार ये प्रयास किया कि फ्रांस की दासौ किसी सरकारी कंपनी को "आफसेट" के लिए चुने परंतु फ्रांस सरकार ने साफ इंकार कर दिया उसका कारण भी था, क्योकि भारत की सरकारी कंपनियों के साथ दुनिया की कोई हथियार निर्माता कंपनी काम करने को तैयार नहीं है 2011 विकीलीक्स खुलासे में अमेरिकी राजदूत ने HAL(हिंदुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड) के बारे में लिखा था की यह भारतीय कंपनी पश्चिम की कंपनियों से 30-40 वर्ष पीछे है और समान की गुणवत्ता तथा उत्पादन को छिपाने के लिए सरकारी अधिकारी लगातार झूठ बोलते हैं जो की सच भी है और हम आप इसे समझ भी सकते हैं, फिर भी मोदी सरकार ने 50% आफसेट में से एक हिस्सा DRDO को दिलवाया है।
और रही बात रिलायंस की तो हममे से बहुत कम लोग जानते हैं कि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस अमेरिका के 100 से अधिक युद्ध पोतों की मरम्मत तथा रखरखाव का कार्य करती है मतलब अनिल अंबानी की इस कंपनी को अनुभव भी जबरदस्त है।
भारतीय वायुसेना की युद्धक क्षमता लगातार कमजोर पड़ती जा रही थी चीन और पाकिस्तान जैसे दुश्मन हमारे सर पर खड़े हैं तब भी देश के गद्दार पूछ रहे हैं कि राफेल ही क्यूँ यूरो फाइटर या अन्य विमान क्यूँ नही तो यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि जब कांग्रेस ने राफेल के लिए सौदेबाजी कर लिया था तो अन्य देशों से बातचीत का कोई बहुत मतलब नही था, रही बात यूरो फाइटर की तो जर्मनी और इटली जैसे देश उसमे परमाणु हथियार लगाने का लगातार विरोध कर रहे थे जबकि राफेल का परमाणु हमला एक साथ तीन अलग अलग जगहों पर हो सकता है जो कि हमारी जरूरत भी है, हां अभी तक फ्रांस के दासौ का मिराज 2000 ही परमाणु हमले के लिए हमारे पास सबसे उपयुक्त विमान है।
शायद राहुल गांधी इस तथ्य से परिचित ना हों की कांग्रेस की मनमोहन सरकार ने 2013 मे हथियार खरीद के नये नियम बनाये थे जिसमे दो सरकारों के मध्य होने वाले हथियार खरीद के समझौते को कैबिनेट तक की मंजूरी की जरूरत नहीं होती है तथा इसमे वरीयता वाले विकल्प पर संज्ञान की भी जरूरत नहीं है।
कांग्रेस और राहुल गांधी मोदी सरकार पर अनाप सनाप आरोप तो लगा सकते हैं लेकिन विदेशी हथियार निर्माताओं पर ऐसे बेतुके आरोप लगाकर देश की विश्वसनीयत पर संकट पैदा कर रहे हैं तथा चाहकर या अनचाहे दुश्मनो को मदद करने की कोशिश कर रहे हैं जबकि वो ये भलीभांति जानते हैं कि विमानो की वास्तविक कीमतें बताने पर उसकी खूबियां और खामियाँ दुश्मनो तक आसानी से पहुंच सकती हैं।
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