ऐसा शीर्षक पढ़कर बहुत सारे लोगों को कुछ अटपटा लग सकता है, ऐसा इसलिए है या तो वो लोग अंतरराष्ट्रीय राजनीति की गहरी जानकारी नहीं रखते या फिर उनका जन्म 90 के दशक में हुआ होगा। USSR के पतन और भारत के आर्थिक सुधारों के बाद भारत का राजनैतिक झुकाव अमेरिका की ओर आ गया है लेकिन इसके पहले स्थिति एकदम विपरीत थी। भारत रूस का राजनैतिक सहयोगी था, रूस कदम कदम पर भारत की मदद करता था। भारत की सरकार भी समाजवाद से प्रेरित रहती थी और अधिकतर योजनाएं भी पूर्णतः सरकारी होती थीं, निजी क्षेत्र बहुत ही सीमित था। ये सब बदलाव 1992 के बाद आये जब भारत आर्थिक तंगी से गुजर रहा था और उसका सहयोगी USSR (सोवियत संघ रूस) विखर चुका था, तत्कालीन प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को इस परेशानी से निकलने का कोई विचार समझ में नहीं आ रहा था अतएव भारत ने विश्वबैंक की तरफ रुख किया और विश्वबैंक की सलाह पर ही निजी क्षेत्रों में विस्तार किया गया और भारतीय अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था बना दिया गया। यहीं से शुरुआत हो जाती है भारत की नई राजनीति की। जहां तक मेरे राजनैतिक दृष्टिकोण की बात है मैं ये पोस्ट बस इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन करके ही लिख रहा हूँ, अतएव उम्मीद करता हूँ किसी भी राजनैतिक पार्टी की विचारधारा से रहित होकर आप इसे पढ़कर इसका मूल्यांकन करेंगे। आइये आपको इतिहास के कुछ पहलुओं से अवगत कराता हूँ पहले, फिर बताऊंगा कि अमेरिका भारत के लिए संदिग्ध क्यों है:
द्वितीय विश्वयुद्ध : जर्मनी
द्वितीय विश्व-युद्ध में यूं तो अमेरिका शामिल नहीं था लेकिन जब नाजियों ने उसके जहाजों को डुबाना शुरू किया तो अमेरिका ने भी युद्ध में शामिल होने की घोषणा कर दी। खैर, युद्ध में जर्मनी, इटली और जापान की हार हुई लेकिन इसका मोल सबसे ज्यादा जर्मन लोगों ने चुकाया। जर्मनी पर एक तरफ से रूस ने हमला किया था और दूसरी तरफ से ब्रिटेन-फ्रांस-अमेरिका की संयुक्त सेनाओं ने, इसका फल ये हुआ कि जर्मनी चार टुकड़ों में टूट गया। बर्लिन के बीच में एक दीवार बना दी गई जिसे "बर्लिन की दीवार" के नाम से आप सब परिचित ही होंगे।
और ये सब तब तक चला जब तक 1989 में ये दीवार तोड़ नहीं दी गई। अब सबाल ये उठता है कि सयुंक्त राष्ट्र संघ के होते हुए ये चार देश किसी एक देश के संसाधनों का दोहन कैसे करते रहे 34 सालों तक? क्या तब किसी मानवाधिकार संगठन को इनकी याद नहीं सताई? क्या नाजियों की क्रूरता का बदला उन लोगों से लेना उचित था जो केवल उनकी संताने थे? खैर आज जर्मनी फिर से एक हो चुका है, लेकिन क्या इतने दिनों तक इन देशों की भूमिका पर सवालिया निशान नहीं लगने चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध : कोरिया
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस-अमेरिका ने कोरिया को जापान से मुक्त करवाने के लिए अभियान शुरू किया था। उत्तर दिशा की तरफ से रूस और दक्षिणी दिशा की तरफ से अमेरिका ने लड़ाई प्रारम्भ की और अंत में जापान को कोरिया में हरा दिया। हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के बाद जब जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया तब तक कोरिया के दो टुकड़े हो चुके थे आधे पर कब्जा रूस का था आधे पर अमेरिका का, और इन दोनों देशों ने कभी नहीं चाहा कि कोरिया को आजाद करके एक कार दिया जाए। विश्व शक्ति बनने की होड़ में, दौनों देशों के बीच शीत-युद्ध चलता रहा इसका परिणाम सबसे ज्यादा जर्मनी और कोरिया ने भुगता। सयुंक्त राष्ट्र संघ के होने के वावजूद उत्तर कोरिया और दक्षिणी कोरिया के बीच आज तक युद्ध विराम की घोषणा नहीं हो पाई।
अमेरिका चाहता था दक्षिणी कोरिया की तरह उत्तरी कोरिया में भी लोकतंत्र स्थापित किया जाए और रूस चाहता था उत्तर कोरिया की तरह दक्षिणी कोरिया में कम्युनिस्ट शासन.. लेकिन सम्भवतः इसके भयानक परिणाम हुए, अमेरिकी सेनाओं ने दशकों तक दक्षिणी कोरिया पर कब्जा कर रखा और कठपुतली सरकार बना रखी। आंशिक रूप से युद्ध रुका हुआ था कि अमेरिका ने उत्तरी कोरिया पर हमला कर दिया और लगभग 70% भूभाग पर कब्जा कर लिया, उसी दौरान चीन भी स्वतंत्र हुआ था, नई नई सेना बनाई थी। उत्तर कोरिया अमेरिकी सेना के नेतृत्व में दक्षिणी कोरिया द्वारा कब्जाया जाने ही वाला था कि चीन की सेना ने उत्तर कोरिया की तरफ से धावा बोल दिया। चीन से ऐसी उम्मीद किसी ने नहीं की थी क्योंकि उनको हाल में ही आजादी मिली थी इसलिए इतनी सामरिक ताकत का अनुमान किसी को नहीं था। चीन की सेना ने अमेरिका को ये अहसास दिला दिया कि वो कोरिया के संसाधनों का यूं ही दोहन करके मनमानी नहीं कर सकता है। चीन और उत्तर कोरिया की संयुक्त फौजों ने दक्षिणी कोरिया से अमेरिकी सेना को बहुत पीछे धकेल दिया। फिर कुछ दशकों तक यूं ही लड़ाई बनी रही और वो बॉर्डर अस्तित्व में आई जो आज उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के बीच है। भले ही आज दक्षिणी कोरिया ने बहुत तरक्की की हो लेकिन कोरिया के दो टुकड़े निसन्देह अमेरिका की बदौलत हुए क्योंकि रूस उत्तर कोरिया को जीतने के वावजूद स्थानीय लोगों को सत्ता सौंप चुका था वो बात अलग है उसने कुछ समय था अपना हस्तेक्षप रखा इस क्षेत्र में, लेकिन उतना नहीं जितना अमेरिका ने दक्षिणी कोरिया में कर रखा था। अमेरिका की विश्व शक्ति बनने की कीमत कोरिया ने चुकाई।
अफगानिस्तान और आतंकवाद : अमेरिका की भूमिका:
वैसे तो अफगानिस्तान आज एक मुस्लिम बहुल मुल्क है लेकिन अगर इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो कभी यहां पर हिन्दू, यूनानी, बौद्ध सभ्यताओं ने राज किया ततपश्चात मुस्लिम आये बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन किया गया लेकिन धर्म परिवर्तन के वावजूद अफगानिस्तान के मुसलमान कई छोटी छोटी जनजातियों में विभक्त हैं और हर जनजाति पूरे देश पर अपना प्रभुत्व चाहती है। शायद यही वजह है कि अफगानिस्तान पर हमला करना जितना आसान है राज करना उतना ही मुश्किल। जब इन्हीं जनजातियों के विरोध के फलस्वरूप अफगानिस्तान के तत्कालीन शासक ने USSR को अपने यहां बुलाया तो सबसे ज्यादा बुरा अमेरिका को लगा। अमेरिका नहीं चाहता था कि एक और मुल्क सोवियत संघ का हिस्सा बन जाये। सोवियत आर्मी ने अफगानिस्तान में लम्बी लड़ाई लड़ी ताकि तत्कालीन शासक अपनी सत्ता पर काबिज रहें और वो काफी हद तक सफल भी हो गए होते अगर अमेरिका-सऊदी-पाकिस्तान की गुटबंदी न हुई होती या सोवियत संघ का विघटन न हुआ होता। सोवियत के आने से सबसे ज्यादा असुरक्षा की भावना उनको हुई जो लोग कट्टर मुस्लिम थे, उन्होंने अपने मजहब की रखा के लिए मुजाहिद्दीन विचारधारा विकसित की। उस दौर में मध्य-एशिया में पेट्रोलियम मिलने से लगभग सबको इसी भाग में दिलचस्पी थी, होड़ सी मची थी मध्य एशिया पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की। अमेरिका को जब लगा कि अफगानिस्तान भी सोवियत संघ का हिस्सा बन सकता है तो उसने ऐसी विनाशकारी राजनीति की शुरुआत की जिससे आज लगभग देश पीड़ित है। अमेरिका की एक ही मंशा थी कि कैसे भी सोवियत को तोड़ा जाए, सऊदी अरब अपने मुस्लिम ब्रदरहुड को बढ़ाना चाह रहा था। सऊदी और अमेरिका में पेट्रोलियम की डील हो चुकी थी, अमेरिका सऊदी को बड़े बड़े हथ्यार और पैसा सप्लाई करने लगा। आपको इधर बता देना चाहूंगा, पाकिस्तान एक प्रमुख सदस्य रहा है अमेरिका के गुट में, पाकिस्तान को भारत से निपटने के लिए भी हथयारो की जरूरत थी पैसे भी चाहिए थे। अमेरिका और सऊदी ने पाकिस्तान की हर सम्भव मदद की और पाकिस्तान ने अफगानी जनजातियों को आतंकवादी ट्रेनिंग देना स्टार्ट कर दिया, महजबी कट्टरता भरी गई जिससे उन्हें लगने लगा सोवियत इस्लाम को खत्म कर देगा। हर आतंकी को मुजाहिद्दीन कहा जाने लगा और संगठन का नाम रखा गया "तालिबान"। अब आप सोच सकते हैं कैसे अमेरिका ने केवल और केवल रूस को नीचा दिखाने के लिए आतंकवाद तक में अपना योगदान दिया लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से, और सारा दोष पाकिस्तान पे मड़ दिया गया। पाकिस्तान को पैसों और हथियारों की खेप मिल जाती थी जिसका इस्तेमाल उसने भारत के खिलाफ किया, आतंकवाद फैलाया और इन सबका जिम्मेदार था अमेरिका। आज सोवियत विखंडित हो चुका है लेकिन अफगानिस्तान ने जो दंश झेला उसका कोई इलाज नहीं। कदम कदम पर माइंस बिछे हैं अफगानिस्तान की धरती पर, गाड़ी रोड पे चलाने के लिए दो लोग गाड़ी के आगे चलाने पड़ते हैं, दुनियाँ में सबस ज्यादा अपंग लोग अफगानिस्तान में पाए जाते हैं वजह ये है उन्होंने सबसे लंबा युद्ध देखा है। तालिबान तो केवल स्थानीय उद्देश्य के लिए बनाया गया था। USSR के जाने के बाद इसे खत्म हो जाना चाहिए था लेकिन तालिबान दो टुकड़ों में टूटा और दूसरा भाग अलकायदा बना। 9/11 का हमला तो आपको याद ही होगा कि कैसे अमेरिका ही अपने बोए हुए पाप का भागी बना। आज इन आतंकवादी संगठनों ने कई देशों में आतंकवाद फैला रखा है, आज भी सऊदी दुनियाँ का सबसे बड़ा युद्धक हथयार आयातक देश है जबकि यमन के अलावा वो कहीं और लड़ नहीं रह है तो फिर वो अमेरिका से हथयार खरीदकर कहाँ दे रहा है, वजह साफ है ये हथयार इन्हीं आतंकवादियों को दिए जा रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो ISIS को खत्म करना अमेरिका के लिये कोई बड़ी बात न होती लेकिन अपने सबसे बड़े ग्राहक को कौन सा व्यापारी मारेगा? यही वजह है सीरिया में इतना बड़ा केमिकल अटैक तब होता है जब स्थानीय फौज ISIS पे बड़ा हमला करती है और दोष स्थानीय सरकार पे मढ दिया जाता है ताकि ISIS को सलामत रखा जा सके।
डॉ होमी जहाँगीर भाभा की मृत्यु:
आपको शायद याद हो, हमारे देश के महान नाभिकीय वैज्ञानिक डॉ होमी जहाँगीर भाभा ने देश में नाभिकीय कार्यक्रमों की नींव डाली थीं। उस समय भारत रूस के ग्रुप में हुआ करता था और पाकिस्तान अमेरिका के। अमेरिका ने अपने अजेय टैंकर पाकिस्तान को बेंचे थे जिसके बारे में कहा जाता था कि ये ऐसी धातु के बने हैं लेकिन भारतीय सेना उनको भेदने में सक्षम हुई इसका श्रेय केवल और केवल डॉ भाभा को जाता है। इस घटना से अमेरिका बहुत तिलमिला गया था। डॉ भाभा ने बहुत पहले ही परमाणु परीक्षण करने की पहल की थी लेकिन तत्कालीन सरकारों ने तब उतनी रुचि नहीं दिखाई थी। लेकिन अमेरिका को भारत का बड़ी शक्ति बनना खटक रहा था इसलिए जानबूझकर होमी जहाँगीर भाभा को मरवाया गया जिससे कि भारत का नाभिकीय कार्यक्रम रुक जाए, और हुआ भी वही भारत फिर 30 साल बाद परमाणु परीक्षण कर पाया जिसे 70 के दशक में ही कर लिया होता। ऐसा कहा जाता है कि फ्लाइट एयर इंडिया 101 जिसमें डॉ भाभा थे, वो आल्प्स पर्वत के पास क्रैश हो गया था लेकिन जब उस जगह जाकर देखा गया तो ब्लैक बॉक्स किसी और प्लेन का बरामद हुआ। Gregory Douglas, एक पत्रकार जिन्होंने Robert Crowley, CIA operative का टेलीफोन कॉल्स रिकॉर्ड की थी। इन्होंने ये दावा किया कि डॉ होमी जहाँगीर भाभा की मौत के पीछे अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA का हाथ था और तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु की साजिश में भी CIA संदिग्ध है और ये सब भारत के नाभिकीय कार्यक्रम को रोकने के लिए किया गया।
1971 बांग्लादेश आजादी और अमेरिका की भूमिका:
ये वो लड़ाई थी जो बांग्लादेश की आजादी के लिए भले ही लड़ी गई लेकिन इसकी पृष्ठभूमि दरअसल अमेरिका रूस का शीट युद्ध ही था। उस समय सऊदी अरब ही तेल का बड़ा निर्यातक राष्ट्र था और रूस-अमेरिका दौनों को तेल की बड़ी जरूरत होती थी। अमेरिका और सऊदी की तो डील हो गई थी तेल के बदले हथयार और सुरक्षा की लेकिन रूस अभी भी तेल खरीद ही रहा था। चलिये यहां बांग्लादेश यानि पूर्वी पाकिस्तान में जब पाकिस्तानी सेना जुल्म करने लगी तब सबसे बड़ा सवाल उठा आजादी का... बड़ी संख्या में बांग्लादेशी शरणार्थी भारत में घुसपैठ कर रहे थे तब जाकर भारत को बांग्लादेश की आजादी के लिए पाकिस्तान से संघर्ष का मन बनाया और इसमें भारत की सबसे बड़ी मदद की रूस ने, रूस ने युद्ध सम्बन्धी सारी जरूरतें भारत को उपलब्ध करवाई। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की बात की जाए तो इस लड़ाई पे सबको नजर थी कोई भी देश खुलकर नहीं बोल सकता था क्योंकि सवाल मानवाधिकार का था इसलिए पाकिस्तान का सहयोग अमेरिका और सऊदी अरब ने उतना खुलकर नहीं किया लेकिन कूटनीतिक प्रयास ज़रूर किये। जैसे ही बांग्लादेश आजाद हुआ और भारत ने लाहौर पे कब्जा जमाया इधर पाकिस्तान में, उधर सऊदी अरब ने रूस की तेल सप्लाई बाधित कर दी। भारत तब तक सारा तेल या तो ईरान से लेता था या इराक से अतः भारत पर कोई खास असर पड़ने की संभावना नहीं थी लिहाजा रूस ने फिर भारत पर युद्धविराम का दबाब बनाया और हमें भारी अंतरराष्ट्रीय दबाब में पाकिस्तान के जीते हुए भाग वापस करने पड़े। ये आखिरी बार था जब रूस और भारत ने एक दूसरे का खुलकर साथ दिया हो। इसके बाद भारत की नीतियां अपने निचले स्तर पर आ गई और लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोगी नहीं मिले। यहां भी अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद की थी।
कश्मीर मुद्दा और अमेरिका की भूमिका:
कश्मीर मुद्दा तो बेहद ही विवादित मुद्दा है, जब तक इसमें दो देश शामिल थे तब तक इसका निदान सम्भव था किंतु जब से पाकिस्तान ने अक्साई चिन चीन को दे दिया तब से ये मुद्दा और भी जटिल हो गया है। सऊदी-अमरीका-पाकिस्तान की तिकड़ी ने आतंकवाद के सहारे इसे हमेशा से जिंदा रखा, रूस के विखंडन के बाद से कश्मीर में आतंकवाद की घटनाएं आम हो गई इसका प्रमुख कारण ये है कि आतंकवाद में पूंजी प्रवाह बना रहा। पाकिस्तान को पैसा अमेरिका देता ही था और हथयार सऊदी से मिल जाते थे जो हथयार उसे अमेरिका देता था। यही आतंकवाद फैलाने में इस्तेमाल किया जाता रहा। आज कुछ कुछ राजनैतिक समीकरण जरूर बदल रहे हैं, दुनियाँ की तेल से निर्भरता खत्म हो रही है इसलिए मध्य एशिया की तरफ अब कोई उतना ध्यान नहीं दे रहा, अमेरिका ने अपना पेट्रोलियम निर्यात करना शुरू कर दिया है, कुवैत के हाथ गैस का बड़ा भंडार हाथ लगा है लेकिन सऊदी के पास अगले दस तक का ही पेट्रोलियम है यही वजह है सऊदी आजकल ज्यादा फड़फड़ाने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान को आजकल वाकई दौनों ने नजरअंदाज कर रखा हो लेकिन पाकिस्तान को इन दौनों से ज्यादा भरोसेमंद दोस्त मिल गया : चीन। चीन का अपना फायदा है मिडिल ईस्ट तक व्यापार पाकिस्तान होते हुए बढ़ाना, पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैसे और सहयोग की जरूरत है और ये सब चीन से मिल रहा है। इसलिए पाकिस्तान-चीन हमारे लिए आज बड़े खतरे हैं क्योंकि कश्मीरी आतंकवादियों के पास एक जमाने मे अमेरिकी असलहे बरामद होते थे आजकल वो चीनी होते हैं। पाकिस्तान को भले ही सऊदी-अमेरिका का विकल्प मिल गया हो लेकिन हमारे लिए जिस देश ने इतने कुकर्म किये वो इतना भरोसेमंद नहीं हो सकता।
कारगिल युद्ध और अमेरिका की भूमिका:
आपने शायद सुना ही होगा कारगिल में घुसपैठ की सूचना भारत को अमेरिका ने दी थी लेकिन कब दी थी इस पर शायद ही किसी ने विचार किया हो। इस घटना का जुड़ाव भारत के परमाणु परीक्षण से है, जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया तो दुनियाँ भर में सनसनी फैल गई इसके पहले अमेरिका ने लाख कोशिश की थी इसमें अड़ंगा डालने की लेकिन अपनी इस हार पर अमेरिका कभी खाली बैठने वाला नहीं था। उसने भारत को एक कूटनीतिक चाल में फंसाया जिससे एक सबक सिखाया जा सके। इसलिए अमेरिका की शह पर ही पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठ की, और भारत को तब बताया जब ये जान लिया कि पाकिस्तान अच्छी पोजिशन में आ चुका। ये वो समय था जब अमेरिका के बिना बताए ही जल्दी ही हम वैसे भी जान जाते कि पाकिस्तान ने घुसपैठ की है। कारगिल की लड़ाई में कुछ दिन तक हमें किसी भी देश ने मदद नहीं की। पाकिस्तान के जवान अच्छी पोजिशन में ऊंचाई पर थे, भारतीय सेना के लिए विषम परिस्थिति थी। न हमारी कोई खास मदद तब अमेरिका ने की न ही रूस ने, केवल दो ही देश आज तक भारत के खिलाफ कभी नहीं बोले - फ्रांस और इजरायल। इजराइल ने हमें जरूरी गोला बारूद की सप्लाई जारी रखी और फ्रांस ने हमें उस मुश्किल वक़्त में लेजर गाइडेड बम दिए, ये वो बम होते हैं जो अपने लक्ष्य पर बहुत सटीक तरीके से गिराए जा सकते हैं सैटेलाइट की मदद से। इन बमों की मदद से ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए भारतीय सेना ने, पाकिस्तान ने जब हर मान ली तो अब बारी पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बनाने की आई ... लेकिन तब अमेरिका समेत कई देशों ने हस्तक्षेप किया और पाकिस्तानी सैनिकों को सेफ पास दिलवाया जोकि किसी भी नजरिये से उचित नहीं था। कारगिल की लड़ाई एक छलावा जैसी रही.. असली में ये लड़ाई नहीं थी, ये हमें सबक सिखाने के लिए अमेरिका की कूटनीति थी जिसमें वो काफी हद तक कामयाब भी हुआ।
हालिया VISA नीति: NATO और Oceana देश:
आपने अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की हालिया वीसा नीति के बारे में सुना ही होगा कि कैसे खासतौर पर भारतीयों के लिए कठिन प्रावधान किए गए हैं वावजूद इसके कि मेक इन इंडिया स्कीम के तहत भारत ने सभी देशों के लिए अपनी वीसा और बिजनेस पॉलिसी में काफी बदलाव किया। ब्रिटेन में जिस तरीके से एक नीग्रो ब्रिटिश भारतीयों को ब्रिटेन से भगाने की बात कर देता है, आतंकवाद ग्रस्त लंदन में मेयर एक मुस्लिम को बना दिया जाता है लेकिन अकल के अंधों को खतरा भारतीय प्रवासियों ने नजर आ रहा है तो ये वाकई चौकाने वाला है। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भारत की यात्रा करते हैं और वापस जाकर अगले ही दिन वीसा के नियम कठोर करने वाला बिल पास हो जाता है। डोनाल्ड ट्रम्प के आने से भारतीय कंपनियां टारगेट करके जानबूझकर ऐसे वीसा नियम तैयार किये गए कि भारतीय उद्योग की कमर टूट जाये। 'मेक इन इंडिया' आंशिक रूप से सफल रहा लेकिन इसको सफल बनाने के लिए हम अपने वीसा नियम या बिजनेस पॉलिसी नहीं बदल पा रहे हैं तो इसे हमारी अदूरदर्शिता कहा जायेगा। हमें ऐसे छद्म देशों के साथ भी उनके व्यवहार के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए, ज्यादा मेल-मिलाप दिखाने से हम उनके द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे हैं बस हमें कोई खास लाभ नहीं मिल रहा है।
आधार कार्ड डेटाबेस :
विकीलीक्स ने दावा किया है कि अमेरिकी एजेंसी CIA ने भारत के आधार कार्ड डेटाबेस में सेंघ लगा ली है। यदि ये सच हुआ तो हमारे बैंक खाते, हमारी मेडिकल हिस्ट्री, हमारा बॉयोडाटा सब कुछ खतरे में है। ये सभी जानकारी राइट टू प्राइवेसी के अंतर्गत आती हैं जिनको हमने सरकार के साथ साझा कर रखा है और हमार सरकार इतनी संवेदनशील जानकारी सुरक्षित रखने में असमर्थ साबित हुई है।
https://twitter.com/wikileaks/status/900990454434598912
भारत द्वारा चीन-पाकिस्तान की नीति पर अमेरिका पर विश्वास करने के सम्भवतः नतीजे:
आज के हालात बहुत बदल गए हैं, अंतरराष्ट्रीय स्तर और हमें एक अदद दोस्त की तलाश है.. आज कोई भी देश हमारे करीब दिखता है वो बस अपने व्यापारिक रिश्तों की वजह से है नाकि दोस्ती की। इजराइल का व्यापार भारत से ज्यादा चीन के साथ है, इसलिए पाकिस्तान के साथ लड़ाई में भले ही हमें इजरायल के साथ मिल जाये लेकिन चीन के खिलाफ जंग में हम पक्के तौर पर ये नहीं कह सकते। ठीक वैसे ही, रूस आज किसी लड़ाई में हमारा साथ देने के न तो मूड में दिखता है न हम पक्के तौर पर ये उम्मीद कर सकते हैं। NATO देश एक साथ ही रहेंगे जहां भी रहें, और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ ये लोग तटस्थ ही रहेंगे भारत का खुलकर साथ नहीं दे सकते। इसके अलावा अब बचते हैं अफ्रीकन और मुस्लिम देश तो उनसे तो आप उम्मीद ही नहीं सकते। इसलिए कूटनीतिक तौर पर हमें अपने दुश्मनों से निपटने का तरीका खुद ही ढूंढना पड़ेगा। अमेरिका आज भारत का साथ चाहता है तो वो दक्षिण चीन सागर में चीन पर उसकी कूटनीति का हिस्सा है, डोकलाम पर हमारी कूटनीति का हिस्सा नहीं, वक़्त आने पर अमेरिका कभी भी U-टर्न ले सकता है क्योंकि चीन ने अमेरिका में बहुत व्यापार पसार रखा है इसलिए वो कभी नहीं आएगा चीन के खिलाफ उलटा अमेरिका के चक्कर मे हमारा एक बड़ा दुश्मन पैदा हो जाएगा जो हमारी तरक्की को बाधित करता ही रहेगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध : जर्मनी
द्वितीय विश्व-युद्ध में यूं तो अमेरिका शामिल नहीं था लेकिन जब नाजियों ने उसके जहाजों को डुबाना शुरू किया तो अमेरिका ने भी युद्ध में शामिल होने की घोषणा कर दी। खैर, युद्ध में जर्मनी, इटली और जापान की हार हुई लेकिन इसका मोल सबसे ज्यादा जर्मन लोगों ने चुकाया। जर्मनी पर एक तरफ से रूस ने हमला किया था और दूसरी तरफ से ब्रिटेन-फ्रांस-अमेरिका की संयुक्त सेनाओं ने, इसका फल ये हुआ कि जर्मनी चार टुकड़ों में टूट गया। बर्लिन के बीच में एक दीवार बना दी गई जिसे "बर्लिन की दीवार" के नाम से आप सब परिचित ही होंगे।
और ये सब तब तक चला जब तक 1989 में ये दीवार तोड़ नहीं दी गई। अब सबाल ये उठता है कि सयुंक्त राष्ट्र संघ के होते हुए ये चार देश किसी एक देश के संसाधनों का दोहन कैसे करते रहे 34 सालों तक? क्या तब किसी मानवाधिकार संगठन को इनकी याद नहीं सताई? क्या नाजियों की क्रूरता का बदला उन लोगों से लेना उचित था जो केवल उनकी संताने थे? खैर आज जर्मनी फिर से एक हो चुका है, लेकिन क्या इतने दिनों तक इन देशों की भूमिका पर सवालिया निशान नहीं लगने चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध : कोरिया
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस-अमेरिका ने कोरिया को जापान से मुक्त करवाने के लिए अभियान शुरू किया था। उत्तर दिशा की तरफ से रूस और दक्षिणी दिशा की तरफ से अमेरिका ने लड़ाई प्रारम्भ की और अंत में जापान को कोरिया में हरा दिया। हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के बाद जब जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया तब तक कोरिया के दो टुकड़े हो चुके थे आधे पर कब्जा रूस का था आधे पर अमेरिका का, और इन दोनों देशों ने कभी नहीं चाहा कि कोरिया को आजाद करके एक कार दिया जाए। विश्व शक्ति बनने की होड़ में, दौनों देशों के बीच शीत-युद्ध चलता रहा इसका परिणाम सबसे ज्यादा जर्मनी और कोरिया ने भुगता। सयुंक्त राष्ट्र संघ के होने के वावजूद उत्तर कोरिया और दक्षिणी कोरिया के बीच आज तक युद्ध विराम की घोषणा नहीं हो पाई।
अमेरिका चाहता था दक्षिणी कोरिया की तरह उत्तरी कोरिया में भी लोकतंत्र स्थापित किया जाए और रूस चाहता था उत्तर कोरिया की तरह दक्षिणी कोरिया में कम्युनिस्ट शासन.. लेकिन सम्भवतः इसके भयानक परिणाम हुए, अमेरिकी सेनाओं ने दशकों तक दक्षिणी कोरिया पर कब्जा कर रखा और कठपुतली सरकार बना रखी। आंशिक रूप से युद्ध रुका हुआ था कि अमेरिका ने उत्तरी कोरिया पर हमला कर दिया और लगभग 70% भूभाग पर कब्जा कर लिया, उसी दौरान चीन भी स्वतंत्र हुआ था, नई नई सेना बनाई थी। उत्तर कोरिया अमेरिकी सेना के नेतृत्व में दक्षिणी कोरिया द्वारा कब्जाया जाने ही वाला था कि चीन की सेना ने उत्तर कोरिया की तरफ से धावा बोल दिया। चीन से ऐसी उम्मीद किसी ने नहीं की थी क्योंकि उनको हाल में ही आजादी मिली थी इसलिए इतनी सामरिक ताकत का अनुमान किसी को नहीं था। चीन की सेना ने अमेरिका को ये अहसास दिला दिया कि वो कोरिया के संसाधनों का यूं ही दोहन करके मनमानी नहीं कर सकता है। चीन और उत्तर कोरिया की संयुक्त फौजों ने दक्षिणी कोरिया से अमेरिकी सेना को बहुत पीछे धकेल दिया। फिर कुछ दशकों तक यूं ही लड़ाई बनी रही और वो बॉर्डर अस्तित्व में आई जो आज उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के बीच है। भले ही आज दक्षिणी कोरिया ने बहुत तरक्की की हो लेकिन कोरिया के दो टुकड़े निसन्देह अमेरिका की बदौलत हुए क्योंकि रूस उत्तर कोरिया को जीतने के वावजूद स्थानीय लोगों को सत्ता सौंप चुका था वो बात अलग है उसने कुछ समय था अपना हस्तेक्षप रखा इस क्षेत्र में, लेकिन उतना नहीं जितना अमेरिका ने दक्षिणी कोरिया में कर रखा था। अमेरिका की विश्व शक्ति बनने की कीमत कोरिया ने चुकाई।
अफगानिस्तान और आतंकवाद : अमेरिका की भूमिका:
वैसे तो अफगानिस्तान आज एक मुस्लिम बहुल मुल्क है लेकिन अगर इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो कभी यहां पर हिन्दू, यूनानी, बौद्ध सभ्यताओं ने राज किया ततपश्चात मुस्लिम आये बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन किया गया लेकिन धर्म परिवर्तन के वावजूद अफगानिस्तान के मुसलमान कई छोटी छोटी जनजातियों में विभक्त हैं और हर जनजाति पूरे देश पर अपना प्रभुत्व चाहती है। शायद यही वजह है कि अफगानिस्तान पर हमला करना जितना आसान है राज करना उतना ही मुश्किल। जब इन्हीं जनजातियों के विरोध के फलस्वरूप अफगानिस्तान के तत्कालीन शासक ने USSR को अपने यहां बुलाया तो सबसे ज्यादा बुरा अमेरिका को लगा। अमेरिका नहीं चाहता था कि एक और मुल्क सोवियत संघ का हिस्सा बन जाये। सोवियत आर्मी ने अफगानिस्तान में लम्बी लड़ाई लड़ी ताकि तत्कालीन शासक अपनी सत्ता पर काबिज रहें और वो काफी हद तक सफल भी हो गए होते अगर अमेरिका-सऊदी-पाकिस्तान की गुटबंदी न हुई होती या सोवियत संघ का विघटन न हुआ होता। सोवियत के आने से सबसे ज्यादा असुरक्षा की भावना उनको हुई जो लोग कट्टर मुस्लिम थे, उन्होंने अपने मजहब की रखा के लिए मुजाहिद्दीन विचारधारा विकसित की। उस दौर में मध्य-एशिया में पेट्रोलियम मिलने से लगभग सबको इसी भाग में दिलचस्पी थी, होड़ सी मची थी मध्य एशिया पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की। अमेरिका को जब लगा कि अफगानिस्तान भी सोवियत संघ का हिस्सा बन सकता है तो उसने ऐसी विनाशकारी राजनीति की शुरुआत की जिससे आज लगभग देश पीड़ित है। अमेरिका की एक ही मंशा थी कि कैसे भी सोवियत को तोड़ा जाए, सऊदी अरब अपने मुस्लिम ब्रदरहुड को बढ़ाना चाह रहा था। सऊदी और अमेरिका में पेट्रोलियम की डील हो चुकी थी, अमेरिका सऊदी को बड़े बड़े हथ्यार और पैसा सप्लाई करने लगा। आपको इधर बता देना चाहूंगा, पाकिस्तान एक प्रमुख सदस्य रहा है अमेरिका के गुट में, पाकिस्तान को भारत से निपटने के लिए भी हथयारो की जरूरत थी पैसे भी चाहिए थे। अमेरिका और सऊदी ने पाकिस्तान की हर सम्भव मदद की और पाकिस्तान ने अफगानी जनजातियों को आतंकवादी ट्रेनिंग देना स्टार्ट कर दिया, महजबी कट्टरता भरी गई जिससे उन्हें लगने लगा सोवियत इस्लाम को खत्म कर देगा। हर आतंकी को मुजाहिद्दीन कहा जाने लगा और संगठन का नाम रखा गया "तालिबान"। अब आप सोच सकते हैं कैसे अमेरिका ने केवल और केवल रूस को नीचा दिखाने के लिए आतंकवाद तक में अपना योगदान दिया लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से, और सारा दोष पाकिस्तान पे मड़ दिया गया। पाकिस्तान को पैसों और हथियारों की खेप मिल जाती थी जिसका इस्तेमाल उसने भारत के खिलाफ किया, आतंकवाद फैलाया और इन सबका जिम्मेदार था अमेरिका। आज सोवियत विखंडित हो चुका है लेकिन अफगानिस्तान ने जो दंश झेला उसका कोई इलाज नहीं। कदम कदम पर माइंस बिछे हैं अफगानिस्तान की धरती पर, गाड़ी रोड पे चलाने के लिए दो लोग गाड़ी के आगे चलाने पड़ते हैं, दुनियाँ में सबस ज्यादा अपंग लोग अफगानिस्तान में पाए जाते हैं वजह ये है उन्होंने सबसे लंबा युद्ध देखा है। तालिबान तो केवल स्थानीय उद्देश्य के लिए बनाया गया था। USSR के जाने के बाद इसे खत्म हो जाना चाहिए था लेकिन तालिबान दो टुकड़ों में टूटा और दूसरा भाग अलकायदा बना। 9/11 का हमला तो आपको याद ही होगा कि कैसे अमेरिका ही अपने बोए हुए पाप का भागी बना। आज इन आतंकवादी संगठनों ने कई देशों में आतंकवाद फैला रखा है, आज भी सऊदी दुनियाँ का सबसे बड़ा युद्धक हथयार आयातक देश है जबकि यमन के अलावा वो कहीं और लड़ नहीं रह है तो फिर वो अमेरिका से हथयार खरीदकर कहाँ दे रहा है, वजह साफ है ये हथयार इन्हीं आतंकवादियों को दिए जा रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो ISIS को खत्म करना अमेरिका के लिये कोई बड़ी बात न होती लेकिन अपने सबसे बड़े ग्राहक को कौन सा व्यापारी मारेगा? यही वजह है सीरिया में इतना बड़ा केमिकल अटैक तब होता है जब स्थानीय फौज ISIS पे बड़ा हमला करती है और दोष स्थानीय सरकार पे मढ दिया जाता है ताकि ISIS को सलामत रखा जा सके।
डॉ होमी जहाँगीर भाभा की मृत्यु:
आपको शायद याद हो, हमारे देश के महान नाभिकीय वैज्ञानिक डॉ होमी जहाँगीर भाभा ने देश में नाभिकीय कार्यक्रमों की नींव डाली थीं। उस समय भारत रूस के ग्रुप में हुआ करता था और पाकिस्तान अमेरिका के। अमेरिका ने अपने अजेय टैंकर पाकिस्तान को बेंचे थे जिसके बारे में कहा जाता था कि ये ऐसी धातु के बने हैं लेकिन भारतीय सेना उनको भेदने में सक्षम हुई इसका श्रेय केवल और केवल डॉ भाभा को जाता है। इस घटना से अमेरिका बहुत तिलमिला गया था। डॉ भाभा ने बहुत पहले ही परमाणु परीक्षण करने की पहल की थी लेकिन तत्कालीन सरकारों ने तब उतनी रुचि नहीं दिखाई थी। लेकिन अमेरिका को भारत का बड़ी शक्ति बनना खटक रहा था इसलिए जानबूझकर होमी जहाँगीर भाभा को मरवाया गया जिससे कि भारत का नाभिकीय कार्यक्रम रुक जाए, और हुआ भी वही भारत फिर 30 साल बाद परमाणु परीक्षण कर पाया जिसे 70 के दशक में ही कर लिया होता। ऐसा कहा जाता है कि फ्लाइट एयर इंडिया 101 जिसमें डॉ भाभा थे, वो आल्प्स पर्वत के पास क्रैश हो गया था लेकिन जब उस जगह जाकर देखा गया तो ब्लैक बॉक्स किसी और प्लेन का बरामद हुआ। Gregory Douglas, एक पत्रकार जिन्होंने Robert Crowley, CIA operative का टेलीफोन कॉल्स रिकॉर्ड की थी। इन्होंने ये दावा किया कि डॉ होमी जहाँगीर भाभा की मौत के पीछे अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA का हाथ था और तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु की साजिश में भी CIA संदिग्ध है और ये सब भारत के नाभिकीय कार्यक्रम को रोकने के लिए किया गया।
1971 बांग्लादेश आजादी और अमेरिका की भूमिका:
ये वो लड़ाई थी जो बांग्लादेश की आजादी के लिए भले ही लड़ी गई लेकिन इसकी पृष्ठभूमि दरअसल अमेरिका रूस का शीट युद्ध ही था। उस समय सऊदी अरब ही तेल का बड़ा निर्यातक राष्ट्र था और रूस-अमेरिका दौनों को तेल की बड़ी जरूरत होती थी। अमेरिका और सऊदी की तो डील हो गई थी तेल के बदले हथयार और सुरक्षा की लेकिन रूस अभी भी तेल खरीद ही रहा था। चलिये यहां बांग्लादेश यानि पूर्वी पाकिस्तान में जब पाकिस्तानी सेना जुल्म करने लगी तब सबसे बड़ा सवाल उठा आजादी का... बड़ी संख्या में बांग्लादेशी शरणार्थी भारत में घुसपैठ कर रहे थे तब जाकर भारत को बांग्लादेश की आजादी के लिए पाकिस्तान से संघर्ष का मन बनाया और इसमें भारत की सबसे बड़ी मदद की रूस ने, रूस ने युद्ध सम्बन्धी सारी जरूरतें भारत को उपलब्ध करवाई। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की बात की जाए तो इस लड़ाई पे सबको नजर थी कोई भी देश खुलकर नहीं बोल सकता था क्योंकि सवाल मानवाधिकार का था इसलिए पाकिस्तान का सहयोग अमेरिका और सऊदी अरब ने उतना खुलकर नहीं किया लेकिन कूटनीतिक प्रयास ज़रूर किये। जैसे ही बांग्लादेश आजाद हुआ और भारत ने लाहौर पे कब्जा जमाया इधर पाकिस्तान में, उधर सऊदी अरब ने रूस की तेल सप्लाई बाधित कर दी। भारत तब तक सारा तेल या तो ईरान से लेता था या इराक से अतः भारत पर कोई खास असर पड़ने की संभावना नहीं थी लिहाजा रूस ने फिर भारत पर युद्धविराम का दबाब बनाया और हमें भारी अंतरराष्ट्रीय दबाब में पाकिस्तान के जीते हुए भाग वापस करने पड़े। ये आखिरी बार था जब रूस और भारत ने एक दूसरे का खुलकर साथ दिया हो। इसके बाद भारत की नीतियां अपने निचले स्तर पर आ गई और लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोगी नहीं मिले। यहां भी अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद की थी।
कश्मीर मुद्दा और अमेरिका की भूमिका:
कश्मीर मुद्दा तो बेहद ही विवादित मुद्दा है, जब तक इसमें दो देश शामिल थे तब तक इसका निदान सम्भव था किंतु जब से पाकिस्तान ने अक्साई चिन चीन को दे दिया तब से ये मुद्दा और भी जटिल हो गया है। सऊदी-अमरीका-पाकिस्तान की तिकड़ी ने आतंकवाद के सहारे इसे हमेशा से जिंदा रखा, रूस के विखंडन के बाद से कश्मीर में आतंकवाद की घटनाएं आम हो गई इसका प्रमुख कारण ये है कि आतंकवाद में पूंजी प्रवाह बना रहा। पाकिस्तान को पैसा अमेरिका देता ही था और हथयार सऊदी से मिल जाते थे जो हथयार उसे अमेरिका देता था। यही आतंकवाद फैलाने में इस्तेमाल किया जाता रहा। आज कुछ कुछ राजनैतिक समीकरण जरूर बदल रहे हैं, दुनियाँ की तेल से निर्भरता खत्म हो रही है इसलिए मध्य एशिया की तरफ अब कोई उतना ध्यान नहीं दे रहा, अमेरिका ने अपना पेट्रोलियम निर्यात करना शुरू कर दिया है, कुवैत के हाथ गैस का बड़ा भंडार हाथ लगा है लेकिन सऊदी के पास अगले दस तक का ही पेट्रोलियम है यही वजह है सऊदी आजकल ज्यादा फड़फड़ाने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान को आजकल वाकई दौनों ने नजरअंदाज कर रखा हो लेकिन पाकिस्तान को इन दौनों से ज्यादा भरोसेमंद दोस्त मिल गया : चीन। चीन का अपना फायदा है मिडिल ईस्ट तक व्यापार पाकिस्तान होते हुए बढ़ाना, पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैसे और सहयोग की जरूरत है और ये सब चीन से मिल रहा है। इसलिए पाकिस्तान-चीन हमारे लिए आज बड़े खतरे हैं क्योंकि कश्मीरी आतंकवादियों के पास एक जमाने मे अमेरिकी असलहे बरामद होते थे आजकल वो चीनी होते हैं। पाकिस्तान को भले ही सऊदी-अमेरिका का विकल्प मिल गया हो लेकिन हमारे लिए जिस देश ने इतने कुकर्म किये वो इतना भरोसेमंद नहीं हो सकता।
कारगिल युद्ध और अमेरिका की भूमिका:
आपने शायद सुना ही होगा कारगिल में घुसपैठ की सूचना भारत को अमेरिका ने दी थी लेकिन कब दी थी इस पर शायद ही किसी ने विचार किया हो। इस घटना का जुड़ाव भारत के परमाणु परीक्षण से है, जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया तो दुनियाँ भर में सनसनी फैल गई इसके पहले अमेरिका ने लाख कोशिश की थी इसमें अड़ंगा डालने की लेकिन अपनी इस हार पर अमेरिका कभी खाली बैठने वाला नहीं था। उसने भारत को एक कूटनीतिक चाल में फंसाया जिससे एक सबक सिखाया जा सके। इसलिए अमेरिका की शह पर ही पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठ की, और भारत को तब बताया जब ये जान लिया कि पाकिस्तान अच्छी पोजिशन में आ चुका। ये वो समय था जब अमेरिका के बिना बताए ही जल्दी ही हम वैसे भी जान जाते कि पाकिस्तान ने घुसपैठ की है। कारगिल की लड़ाई में कुछ दिन तक हमें किसी भी देश ने मदद नहीं की। पाकिस्तान के जवान अच्छी पोजिशन में ऊंचाई पर थे, भारतीय सेना के लिए विषम परिस्थिति थी। न हमारी कोई खास मदद तब अमेरिका ने की न ही रूस ने, केवल दो ही देश आज तक भारत के खिलाफ कभी नहीं बोले - फ्रांस और इजरायल। इजराइल ने हमें जरूरी गोला बारूद की सप्लाई जारी रखी और फ्रांस ने हमें उस मुश्किल वक़्त में लेजर गाइडेड बम दिए, ये वो बम होते हैं जो अपने लक्ष्य पर बहुत सटीक तरीके से गिराए जा सकते हैं सैटेलाइट की मदद से। इन बमों की मदद से ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए भारतीय सेना ने, पाकिस्तान ने जब हर मान ली तो अब बारी पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बनाने की आई ... लेकिन तब अमेरिका समेत कई देशों ने हस्तक्षेप किया और पाकिस्तानी सैनिकों को सेफ पास दिलवाया जोकि किसी भी नजरिये से उचित नहीं था। कारगिल की लड़ाई एक छलावा जैसी रही.. असली में ये लड़ाई नहीं थी, ये हमें सबक सिखाने के लिए अमेरिका की कूटनीति थी जिसमें वो काफी हद तक कामयाब भी हुआ।
हालिया VISA नीति: NATO और Oceana देश:
आपने अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की हालिया वीसा नीति के बारे में सुना ही होगा कि कैसे खासतौर पर भारतीयों के लिए कठिन प्रावधान किए गए हैं वावजूद इसके कि मेक इन इंडिया स्कीम के तहत भारत ने सभी देशों के लिए अपनी वीसा और बिजनेस पॉलिसी में काफी बदलाव किया। ब्रिटेन में जिस तरीके से एक नीग्रो ब्रिटिश भारतीयों को ब्रिटेन से भगाने की बात कर देता है, आतंकवाद ग्रस्त लंदन में मेयर एक मुस्लिम को बना दिया जाता है लेकिन अकल के अंधों को खतरा भारतीय प्रवासियों ने नजर आ रहा है तो ये वाकई चौकाने वाला है। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भारत की यात्रा करते हैं और वापस जाकर अगले ही दिन वीसा के नियम कठोर करने वाला बिल पास हो जाता है। डोनाल्ड ट्रम्प के आने से भारतीय कंपनियां टारगेट करके जानबूझकर ऐसे वीसा नियम तैयार किये गए कि भारतीय उद्योग की कमर टूट जाये। 'मेक इन इंडिया' आंशिक रूप से सफल रहा लेकिन इसको सफल बनाने के लिए हम अपने वीसा नियम या बिजनेस पॉलिसी नहीं बदल पा रहे हैं तो इसे हमारी अदूरदर्शिता कहा जायेगा। हमें ऐसे छद्म देशों के साथ भी उनके व्यवहार के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए, ज्यादा मेल-मिलाप दिखाने से हम उनके द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे हैं बस हमें कोई खास लाभ नहीं मिल रहा है।
आधार कार्ड डेटाबेस :
विकीलीक्स ने दावा किया है कि अमेरिकी एजेंसी CIA ने भारत के आधार कार्ड डेटाबेस में सेंघ लगा ली है। यदि ये सच हुआ तो हमारे बैंक खाते, हमारी मेडिकल हिस्ट्री, हमारा बॉयोडाटा सब कुछ खतरे में है। ये सभी जानकारी राइट टू प्राइवेसी के अंतर्गत आती हैं जिनको हमने सरकार के साथ साझा कर रखा है और हमार सरकार इतनी संवेदनशील जानकारी सुरक्षित रखने में असमर्थ साबित हुई है।
https://twitter.com/wikileaks/status/900990454434598912
https://twitter.com/wikileaks/status/901148660163117060
भारत द्वारा चीन-पाकिस्तान की नीति पर अमेरिका पर विश्वास करने के सम्भवतः नतीजे:
आज के हालात बहुत बदल गए हैं, अंतरराष्ट्रीय स्तर और हमें एक अदद दोस्त की तलाश है.. आज कोई भी देश हमारे करीब दिखता है वो बस अपने व्यापारिक रिश्तों की वजह से है नाकि दोस्ती की। इजराइल का व्यापार भारत से ज्यादा चीन के साथ है, इसलिए पाकिस्तान के साथ लड़ाई में भले ही हमें इजरायल के साथ मिल जाये लेकिन चीन के खिलाफ जंग में हम पक्के तौर पर ये नहीं कह सकते। ठीक वैसे ही, रूस आज किसी लड़ाई में हमारा साथ देने के न तो मूड में दिखता है न हम पक्के तौर पर ये उम्मीद कर सकते हैं। NATO देश एक साथ ही रहेंगे जहां भी रहें, और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ ये लोग तटस्थ ही रहेंगे भारत का खुलकर साथ नहीं दे सकते। इसके अलावा अब बचते हैं अफ्रीकन और मुस्लिम देश तो उनसे तो आप उम्मीद ही नहीं सकते। इसलिए कूटनीतिक तौर पर हमें अपने दुश्मनों से निपटने का तरीका खुद ही ढूंढना पड़ेगा। अमेरिका आज भारत का साथ चाहता है तो वो दक्षिण चीन सागर में चीन पर उसकी कूटनीति का हिस्सा है, डोकलाम पर हमारी कूटनीति का हिस्सा नहीं, वक़्त आने पर अमेरिका कभी भी U-टर्न ले सकता है क्योंकि चीन ने अमेरिका में बहुत व्यापार पसार रखा है इसलिए वो कभी नहीं आएगा चीन के खिलाफ उलटा अमेरिका के चक्कर मे हमारा एक बड़ा दुश्मन पैदा हो जाएगा जो हमारी तरक्की को बाधित करता ही रहेगा।
अब डोकलाम मुद्दा सुलझ चुका है तो निश्चित तौर पर अमेरिका भारत को अपनी तरफ मिलाने की फिर कोशिश करेगा जबकि डोकलाम संघर्ष में जापान के अलावा किसी भी देश ने खुलकर समर्थन नहीं किया था। अमेरिका हरदम भारत का खुलकर समर्थन देने से बचा ही है, ऐसे में आखिरकार भारत की कौन सी मजबूरी है जो हम अमेरिका का अंधानुकरण करते रहें। हमें अपने राजनैतिक सम्बन्धों पर रहना चाहिए न कि किसी देश की कूटनीति का महज गुलाम बनकर रहना चाहिए। मैं याद दिलाना चाहूंगा, भारतीय राजनीति का रूस से अमेरिका की तरफ झुकाव 1992 के बाद शुरू हुआ और इसका प्रमुख कारण तत्कालीन सरकार और उसकी उत्तरवर्ती सरकारें रही। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि न हम NATO देशों का खुला समर्थन प्राप्त है न ही रूस का, क्योंकि पिछले कुछ सालों में कांग्रेस सरकार ने रूस के साथ सम्बन्ध आजादी के तीन दशक की अपेक्षा बहुत हद तक खराब ही किये हैं और NATO देशों के मोहरे बनकर रह गए हैं हम। मैं भारतीय उद्योगपतियों की प्रशंसा करूँगा कि उन्होंने अपने कारोबार की बदौलत अफ्रीकी देशों में भारत की धाक बना रखी है वरना हमारी सरकारों ने तो अतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें धूमिल करने में कसर नहीं छोड़ी थी। आज जब देश को सशक्त नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के रूप में मिला है अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध सुधरने भी शुरू हुए हैं। डोकलाम विवाद बिना NATO देशों के आगे गिड़गिड़ाये समाप्त होना अपने आप मे एक बड़ी कूटनीतिक सफलता है। आपको लग सकता है ये भारत-चीन के बीच विवाद था लेकिन कूटनीतिक रूप से इसमें कई देश सम्मिलित थे। रूस चीन का समर्थन उत्तर कोरिया के साथ रह है हमेशा से, ऐसे में अमेरिका चीन का ध्यान बटाने के लिए ही भारत पर कूटनीतिक पासे फेंक रहा था जबकि उसका असली उद्देश्य उत्तर कोरिया में अपने हित साधना है इसलिए आजतक उसने भारत का खुलकर समर्थन नहीं किया। अब जबकि डोकलाम विवाद सुलझ गया है तो भारत जैसा तटस्थ देश कभी भी उत्तर कोरिया के खिलाफ अमेरिका को अपना समर्थन नहीं देगा फालतू में, अतएव ये भारत की कूटनीतिक जीत के साथ साथ अमेरिका की कूटनीतिक हार भी है। मैं चीन का हिमायती नहीं हूं लेकिन मैं अमेरिका की तरफ से सचेत रहने की सलाह दूंगा, इसकी अगली कूटनीतिक चाल कुछ भी हो सकती है।
उम्मीद है आपने बड़े धैर्य के साथ ये लेख पढ़ा होगा, मैं धन्यवाद देना चाहूंगा इसके लिए, लेकिन साथ साथ ये उम्मीद भी करूँगा कि आप इसका मूल्यांकन अपने शब्दों में जरूर करना चाहेंगे। आपके विचार आमंत्रित हैं।
America केवल उसका स्वयं का हितसाधक है, दूसरे किसी से उसे कोई लेना देना नहीं है। भरोसा कदापि नहीं करें भारत
जवाब देंहटाएंहमेशा पाकिस्तान के मामले में तराज़ू के दोनों पड़लों पर वज़न रखता है। हम बोझ से कुचले जा रहे हैं। सभी समस्याओं का हल भारत को स्वयं ही ढूँढ ना है।
चीन को भारत पर हमले के लिए उकसा तक रहा था, पर आज बदले हालात में अमेरिका और भारत दोनों जानते हैं कि उनके सामने असली चुनौती चीन ही है। उम्मीद है कि अमेरिकी राष्ट्रपति इस बात को जरूर ध्यान में रखेंगे। भारत बिना अमेरिका का काम नहीं चलेगा। भारत अपनी शर्तों और हितों को ध्यानपूर्वक मनन अध्ययन कर अमेरिका से सम्बंध रखें।
जवाब देंहटाएंकॉमेंट्स में दिनांक और समय गलत दर्शा रहा है। आज 2 सितम्बर है
जवाब देंहटाएंअमेरिका कभी किसी का सच्चा दोस्त नही रहा, जब वो फंसा हो तो उससे अधिक से अधिक फायदा उठाया जाये, यही नीति होनी चाहिए
जवाब देंहटाएंThought provoking.. well written!!
जवाब देंहटाएंशानदार लेख।
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