पराधीन सपनेहु सुख नाही !!
यह दोहा श्रीरामचरित मानस से हैं और इसे गोस्वामी तुलसीदास जी
ने लिखा हैं इसका अर्थ हैं पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख की प्राप्ति
नहीं हो सकती। पिंजरे में बंद एक तोते से बेहतर ये बात कौन जान सकता है जो
पिंजड़े में सुरक्षित तो है ,भोजन भी पा रहा है पर अपने पंख खोल कर आकाश
में उड़ नहीं सकता।
अगर व्यक्ति को सुख चाहिए तो उसे स्वाधीन होने के लिए सतत
संघर्ष करना होता हैं, सैकड़ो वर्ष मुगलो और फिर अंग्रेज़ो के अधीन रहने के
पश्चात हमें भी अंततः 15 अगस्त 1947
को आज़ादी प्राप्त हुई, ढ़ाका से द्वारका तक और क्वेटा से कन्याकुमारी तक
तमाम आहुतियाँ दी गयी तब जाकर 15 अगस्त की रात 12 बजे पंडित नेहरू को "When
the whole world sleep India Awakens" जैसा ऐतिहासिक भाषण देने का सौभाग्य
प्राप्त हुआ था।
मगर आजादी मिलते ही "एक पक्ष" इस आजादी पर अपना कॉपीराइट बता
कर इसकी कीमत देश की जनता से वसूलना चाहता हैं, तो ऐसे में हमारा फर्ज बनता
हैं कि भारत की स्वतंत्रता का एक निष्पक्ष विश्लेषण हमे करना चाहिए और उन
सभी कारणों का पता लगाना चाहिए जिसकी वजह से अंग्रेजों ने हिंदुस्तान को
आजाद करना ही उचित समझा। यह लेख नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सोनिया गांधी जी जो
विदेशी मूल की हैं को उनके लिए भी शिक्षाप्रद रहेगा ताकि वो फिर कभी संसद
में यह ना कह सके कि “कुछ ऐसे संगठन भी हैं जिन्होंने आजादी के आंदोलन में
कोई योगदान नहीं दिया और आज आजादी की बात करते हैं। ऐसे संगठन आजादी के
आंदोलन का विरोध करते थे।"
कुछ तथ्यों से बात शुरू करते हैं, 1857
के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के बाद तमाम रजवाड़े खत्म करके एक केंद्रीकृत
भारत की नींव पड़ी जिसे हम आधुनिक भारत के नाम से जानते हैं। इस संग्राम का
दो ऐतिहासिक असर हुआ पहला की अंग्रेजो का सारे देश पर एकछत्र राज हो गया
जिसकी मुखिया इंग्लैंड की महारानी बनी और दूसरा भारतीयों ने अपने असली
दुश्मन अंग्रेजो को पहचान कर अलग अलग युद्ध छोड़कर एक देश के लिए लड़ना आरम्भ
किया। तमाम छिटपुट संघर्षो के बाद सबसे बड़ा आंदोलन 1920 में गांधी जी के द्वारा असहयोग आंदोलन शुरू हुआ यह आन्दोलन इतना लोकप्रिय और तीखा हुआ कि 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार अंग्रेजी राज की नींव हिल गई। परन्तु फ़रवरी 1922
में किसानों के एक समूह ने संयुक्त प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के
चौरी-चौरा पुरवा में एक पुलिस स्टेशन पर आक्रमण कर उसमें आग लगा दी। इस
अग्निकांड में कई पुलिस वालों की जान चली गई। इस हिंसा को घृणित बताकर
गाँधी जी ने यह आंदोलन वापस ले लिया वरना बहुत से इतिहासकारों का मत था कि
आजादी उसी समय मिल गयी होती।
इसके बाद दूसरे बड़े आंदोलन की शुरुआत 1942
में भारत छोड़ो आंदोलन के रूप में हुई, जिसे अंग्रेजो ने लगभग बुरी तरह से
कुचल दिया था और जो थोड़ा बहुत असर बचा भी था उसे भी गांधी जी ने
विश्वयुद्ध शुरू हो जाने की वजह से आंदोलन वापस लेकर खत्म कर दिया था और
कहा की हमे ऐसे समय मे अंग्रेजो का साथ देना चाहिये।
हम अपनी बात यहाँ से शुरु करेंगे क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध
के बाद ही ऐसी परिस्थितिया बनी की अंग्रेजो को यह देश छोड़कर जाना पड़ा। पर
उसके पहले तात्कालीन इतिहास और अंग्रेजो की मानसिकता पर एक नजर डालना बेहद
जरूरी हैं।
1945
में ब्रिटेन ने विश्वयुद्ध में विजय हासिल की यहाँ तक कि इम्फाल-कोहिमा
सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करते हुए जापानी सेना को बर्मा से निकाल
बाहर करता हुए सिंगापुर तक को ब्रिटेन ने वापस अपने कब्जे में लिया था। अब
सवाल यह हैं कि अगर अंग्रेजो को भारत छोड़ना ही था तो फिर इतना खून खराबा
और पैसा लगाकर एशिया में युद्ध लड़ने की क्या आवश्यकता थी?
आखिर 1945 से 1946
के बीच ऐसा क्या हो गया कि ब्रिटेन ने भारत को छोड़ने का निर्णय ले लिया
जबकि उसे तो हम पर आगे राज करके द्वितीय विश्वयुद्ध का खर्चा भी निकालना
था, आखिर 500 वर्ष चलने वाली सेल्युलर जेल संसद भवन राष्ट्रपति भवन जैसे
निर्माण उन लोगो ने भारतीयों के लिए थोड़ी ना करवाये थे।
यहाँ हम अपने तर्को को सही साबित करने के लिए कुछ रेफरेंस भी आपको देंगे।
सुभाषचन्द्र बोस
भारत की आजादी के लिए सुभाषचन्द्र बोस जी और उनकी आजाद हिंद
सेना ने सबसे बड़े उत्प्रेरक के तौर पर काम किया और परिस्थितियों को अनुकूल
बना दिया, मिलिट्री इतिहासकार जनरल जीडी बक्शी अपनी किताब 'बोस: एन इंडियन
समुराई' में यह दावा करते है की भारत की आजादी के कागजात पर हस्ताक्षर करने
वाले ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने कहा था कि
ब्रिटिश शासन के लिए नेताजी सबसे बड़ी 'चुनौती' थे. इस मुकाबले में गांधीजी
का अहिंसात्मक आंदोलन ब्रिटिश सत्ता के लिए कम चुनौती भरा था। (इसका मतलब
यह नही हैं कि हम गांधी जी के कार्यो को कम करके देख रहे हैं, हम सिर्फ
तथ्य दे रहे हैं निर्णय पाठकों के ऊपर रहेगा)
आरसी मजूमदार की पुस्तक: 'अ हिस्ट्री ऑफ बंगाल' के प्रकाशक को
पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक गवर्नर जस्टिस पीबी चक्रवर्ती जो कोलकाता
हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी थे उन्होंने एक खत लिखा था जो इस प्रकार
हैं "जब मैं कार्यवाहक गवर्नर था तब लॉर्ड एटली जिन्होंने यहां से ब्रिटिश
शासन को हटाने का फैसला किया, अपने भारत दौरे के दौरान मेरे साथ दो दिन
बिताए थे. तब मेरी इस विषय पर उनसे विस्तार से चर्चा हुई कि किन वजहों से
ब्रिटेन को भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. मैंने उसने सीधा प्रश्न
किया कि गांधीजी द्वारा 1942 में शुरू हुआ भारत छोड़ो आंदोलन अपनी धार खो रहा था. 1947
में कोई और बड़ी वजह भी दिखाई नहीं देती फिर क्या कारण था कि एकाएक
ब्रिटिश शासन ने भारत को आजाद करने का फैसला किया. जवाब में एटली ने कई
कारण गिनाए लेकिन उन सब में सबसे मुख्य था भारतीय सेना और नेवी के लोगों
में ब्रिटिश शासन के प्रति बढ़ता असंतोष और अविश्वास. इस अविश्वास के भी
बढ़ने का प्रमुख कारण नेताजी के सैन्य कार्य थे।"
नौसैनिक विद्रोह
इस विद्रोह की शुरुआत 18 फरवरी, 1946
को नौसैनिकों के जहाज ‘तलवार’ पर हुई। अंग्रेजी उपनिवेशवादियों द्वारा
अपने उत्पीड़न और देश की जनता पर किये जा रहे बर्बर अत्याचार ने नौसैनिकों
को विचलित कर दिया। उन पर इस बात ने भी काफी प्रभाव डाला कि आज़ाद हिन्द फौज
के बंदी बनाये गये सिपाहियों को लाल किले में मुकदमा चलाकर फांसी देने की
साजिश की जा रही है। इन बातों ने नौसैनिकों को अपने देश की आज़ादी के लिये
हथियार उठाने को प्रेरित किया। इस विद्रोह की खबर जंगल की आग की तरह पूरे
देश में फैल गई देखते ही देखते इस विद्रोह ने व्यापक रूप ले लिया। इसमें
बंबई के सभी छोटे-बड़े जहाज शामिल हो गये, जिनमें कुछ बड़े जहाजों के नाम थे -
‘हिन्दुस्तान’, ‘कावेरी’, ‘सतलज’, ‘नर्मदा’, और ‘यमुना’। छोटे जहाजों में
शामिल थे - ‘असम‘, ‘बंगाल’, ‘पंजाब’, ‘ट्रावनकोर’, ‘काठियावाड़’ और ‘राजपूत’
आदि। इनके अलावा नौसैनिक प्रशिक्षण जहाज ‘डलहौजी’, ‘कलावती’, ‘दीपावली’,
नीलम’ और ‘हीरा’ भी शामिल हो गये। विद्रोह इतना व्यापक हो गया कि यह सभी
प्रशिक्षण केन्द्रों, जहाजों, सैनिक आवासों तक फैल गया और वहां के सैनिकों
ने ब्रिटिश झंडा उतार फैंका।
नौसैनिक विद्रोह में हिस्सा लेने वाले 85 वर्षीय लेफ्टिनेंट कमांडर, बीबी मुतप्पा बताते हैं, “भारतीय नाविकों को 16 रुपए प्रति माह मिलता था, जबकि एंग्लो इंडियन नाविकों की पगार 60 रुपए थी. एक दिन हम सब 127 नाविकों ने नाश्ते से मना कर दिया. फिर हमें गिरफ्तार कर यरवादा के जेल में कुछ महीने रखा गया और वहाँ भी हमारे ख़िलाफ़ भेदभाव की नीति थी.”
"उसके बाद हमारे वेतन बढ़ाए गए. लेकिन नाविकों का विद्रोह 1946 में विदेशी सरकार के लिए बहुत गंभीर मुद्दा बन गया था. स्वतंत्रता संग्राम के बढ़ते प्रभाव ने नाविकों को अनुशासन में रहने का अपना मूलमंत्र तोड़ने को मज़बूर कर दिया."
यहाँ तक की मुंबई के ऐतिहासिक “गेटवे ऑफ इंडिया” और ताजमहल होटल के निकट स्थित रॉयल नेवी के कोस्टल ब्रांच में तैनात नाविकों ने अपने अंग्रेज़ अफसरों को उनके कमरों और शौचालय में बंद कर दिया था. यही घटना कुछ जहाज़ों पर भी हुई। मुतप्पा कहते हैं कि अंग्रेज़ों को डर था कि लूटे हुए हथियारों और बारूद से कहीं विद्रोह कर रहे नाविक ताजमहल होटल पर हमला न कर बैठें।
मुतप्पा आगे बताते हैं कि “सबके हाथ हथियार लग गया. बावर्ची, सफाई कर्मचारी, खाना परोसने वाले और यहाँ तक की सैनिक बैंड के सदस्यों ने भी हथियार लूट लिए थे.”
विद्रोह ने इतना गंभीर रूप धारण कर लिया था कि नाविक चेन्नई से कराँची तक विद्रोह पर उतर आए थे। मुंबई के केंटल ब्राँचस को मराठा लाइट इंफेंट्री के सैनिकों ने घेर लिया था और कई घंटों तक विद्रोही नाविकों और उनके बीच फायरिंग चलती रही। मुतप्पा यह भी याद करते हैं कि नाविकों द्वारा विद्रोह किए जाने को महात्मा गाँधी का समर्थन नहीं मिला. उन्होंने नाविकों को अनुशान में रहने को कहा. नेहरू ने अपने को सैनिक विद्रोह से अलग कर लिया था
नौसैनिक विद्रोह में हिस्सा लेने वाले 85 वर्षीय लेफ्टिनेंट कमांडर, बीबी मुतप्पा बताते हैं, “भारतीय नाविकों को 16 रुपए प्रति माह मिलता था, जबकि एंग्लो इंडियन नाविकों की पगार 60 रुपए थी. एक दिन हम सब 127 नाविकों ने नाश्ते से मना कर दिया. फिर हमें गिरफ्तार कर यरवादा के जेल में कुछ महीने रखा गया और वहाँ भी हमारे ख़िलाफ़ भेदभाव की नीति थी.”
"उसके बाद हमारे वेतन बढ़ाए गए. लेकिन नाविकों का विद्रोह 1946 में विदेशी सरकार के लिए बहुत गंभीर मुद्दा बन गया था. स्वतंत्रता संग्राम के बढ़ते प्रभाव ने नाविकों को अनुशासन में रहने का अपना मूलमंत्र तोड़ने को मज़बूर कर दिया."
यहाँ तक की मुंबई के ऐतिहासिक “गेटवे ऑफ इंडिया” और ताजमहल होटल के निकट स्थित रॉयल नेवी के कोस्टल ब्रांच में तैनात नाविकों ने अपने अंग्रेज़ अफसरों को उनके कमरों और शौचालय में बंद कर दिया था. यही घटना कुछ जहाज़ों पर भी हुई। मुतप्पा कहते हैं कि अंग्रेज़ों को डर था कि लूटे हुए हथियारों और बारूद से कहीं विद्रोह कर रहे नाविक ताजमहल होटल पर हमला न कर बैठें।
मुतप्पा आगे बताते हैं कि “सबके हाथ हथियार लग गया. बावर्ची, सफाई कर्मचारी, खाना परोसने वाले और यहाँ तक की सैनिक बैंड के सदस्यों ने भी हथियार लूट लिए थे.”
विद्रोह ने इतना गंभीर रूप धारण कर लिया था कि नाविक चेन्नई से कराँची तक विद्रोह पर उतर आए थे। मुंबई के केंटल ब्राँचस को मराठा लाइट इंफेंट्री के सैनिकों ने घेर लिया था और कई घंटों तक विद्रोही नाविकों और उनके बीच फायरिंग चलती रही। मुतप्पा यह भी याद करते हैं कि नाविकों द्वारा विद्रोह किए जाने को महात्मा गाँधी का समर्थन नहीं मिला. उन्होंने नाविकों को अनुशान में रहने को कहा. नेहरू ने अपने को सैनिक विद्रोह से अलग कर लिया था
इसके बाद ब्रिटेन की मिलिट्री इंटेलिजेंस ने ब्रिटीश संसद को रिपोर्ट
दी कि "भारतीय सैनिक भड़के हुए हैं और उन पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता"
और उस समय बमुश्किल 40,000 ब्रिटिश टुकड़ी ही भारत में मौजूद थी, और उनमें
से भी कई अपने देश लौटना चाहते थे. जबकि भारतीय सैनिकों की तादाद 20 लाख
के आसपास थी। इन्ही मुश्किल हालातों को देखते हुए ब्रिटिश शासन ने भारत
छोड़ने का फैसला किया। नौसैनिकों के इस विद्रोह के ठीक एक साल 5 महीने बाद
बाद अंग्रेजो ने भारत छोड़ दिया।
ब्रिटेन की स्थिति
भारत की आजादी की एक सबसे बड़ी वजह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद
ब्रिटेन की खस्ताहाल स्थिति से उपजी थी. ब्रिटेन विश्वयुद्ध में विश्व
विजयी रहा था, लेकिन विजय क्या किसी को बिना कीमत चुकाए मिलती है. ब्रिटेन
के उद्योग धंधे चौपट हो गए, उसका खजाना खाली हो गया था और उसकी मुद्रा पौंड
अमेरिका और कनाडा के इंजेक्शनों के सहारे सांस ले रही थी. ऐसी ही स्थिति
में ब्रिटेन को भारत में उपजे नौसेना विद्रोह और राजनीतिक अस्थिरता को
संभालना भारी पड़ रहा था। ऊपर से संयुक्त राष्ट्र संघ नाम का संगठन आस्तित्व
में आ गया था और इस संगठन ने सबसे पहले गुलाम देशों को आजाद करने के लिए
व्यापक और गम्भीर प्रयास आरम्भ कर दिए थे, उपनिवेशवाद की संस्कृति खत्म हो
रही थी। विश्व के राजनैतिक हालात भी बड़ी तेजी से बदल रहे थे रूस और अमेरिका
दो देश विश्व की महाशक्ति के तौर पर उभरे थे जो दुनिया के हर कोने को अपने
प्रभाव में लेने के लिए आतुर थे ऐसे में ब्रिटेन की प्रसांगिकता ही खत्म
हो रही थी और विश्व जनमत का भी दबाव पड़ रहा था।
इसलिए जब कभी राष्ट्रभक्ति के नाम पर यह गीत आप सुने "दे दी
हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल ,साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल .." तो
ऊपर लिखी घटनाओं पर भी विचार करियेगा क्योकि बिना हथियार उठाये हमे अगर
आज़ादी हासिल हो गयी है तो भरी जवानी में अपने प्राणों की आहुति चंद्रशेखर
आज़ाद और भगत सिंह जैसे सैकड़ों क्रांतिकारियों को नही देनी पड़ती।
भारत की आजादी पर हमारा यह निष्पक्ष विश्लेषण था, ऐतिहासिक
घटनाक्रम पुस्तको का उल्लेख भी किया गया हैं, वैसे यह बहुत बड़ा विषय हैं
बहुत सी चीजें और भी कही जा सकती थी जैसे आजादी के आंदोलन में राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ, हिन्दू महासभा समेत दक्षिणपंथियों का भी बहुत सहयोग रहा
हैं परंतु इससे पोस्ट उबाऊ और बहुत लम्बी हो जाती। अगर पाठक इस विषय पर और
पढ़ना चाहेंगे तो हम आगे भी लिखेंगे इसलिए अपनी रुचि कमेंट में जरूर बताएं.
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लेखक : Awantika Singh 🇮🇳
एक पाकिस्तानी कोलमिस्ट हसन निसार बार बार अंग्रेजी के कुछ शब्दों का प्रयोग करते हैं "distortion of history". कांग्रेस और वामपंथियों ने भी भारत में कुछ ऐसा ही किया है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा आपने, आजादी का कुछ लोग कॉपीराइट लेना चाहते हैं और इस देश की जनता से रॉयल्टी वसूलना चाहते हैं।
हटाएंइतिहास फिर निर्दोष दृष्टिकोण को लेकर लिखा जाना चाहिये। जनता से बहुत कुछ छिपाया है। उपरोक्त लेख में यही बखूबी उठाया गया है, लेखिका को धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया लेख हे
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख लिखा है
जवाब देंहटाएंकाफि जानने का मिला मुजे
बढ़िया जानकारी
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जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ऐतिहासिक जानकारी
जवाब देंहटाएंआज़ादी सिर्फ भगत सिंह जैसे गर्म दल के द्वारा मिली है और ये कमीना गांधी सब को मरवाकर देश को आज़ाद करने का patent अपने नाम कर लिया ।
जवाब देंहटाएंथू और लानत है ऐसे गांधी को