आज महिला दिवस पर मैं भारतीय संस्कृति में नारी का उल्लेख किस प्रकार किया गया हैं इस पर चर्चा करना चाहूँगी, क्योंकि भारतीय धर्मग्रन्थों के उद्धरण देकर वामपन्थी विचारधारा वाले हिन्दू धर्म को स्त्री विरोधी साबित करने का प्रयास करते रहते हैं इसलिए आज यह पूरा लेख इस पर आधारित रहेगा कि हिन्दू धर्मग्रन्थ में स्त्रियों के विषय मे क्या कहा गया हैं।
भारतीय संस्कृति में नारी को जगत्-जननी आदि शक्ति-स्वरूपा के रूप में किया गया है और श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों में नारी को विशेष स्थान मिला है, लेकिन वामपन्थी लोग सबसे ज्यादा मनुस्मृति को कोट करते हैं और कहते हैं यह ग्रन्थ स्त्री विरोधी हैं, आइये जानते हैं कि मनुस्मृति में स्त्रियों के लिए क्या कहा गया हैं। मनुस्मृति के सबसे पहले यह पाँच श्लोक देखिये।
(मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०):
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।५६।।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।५६।।
[यत्र तु नार्यः पूज्यन्ते तत्र देवताः रमन्ते, यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) ।]
जहां स्त्रीजाति का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं । जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते हैं ।
जहां स्त्रीजाति का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं । जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते हैं ।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।५७।।
[यत्र जामयः शोचन्ति तत् कुलम् आशु विनश्यति, यत्र तु एताः न शोचन्ति तत् हि सर्वदा वर्धते ।]
जिस कुल में पारिवारिक स्त्रियां दुर्व्यवहार के कारण शोक-संतप्त रहती हैं उस कुल का शीघ्र ही विनाश हो जाता है, उसकी अवनति होने लगती है । इसके विपरीत जहां ऐसा नहीं होता है और स्त्रियां प्रसन्नचित्त रहती हैं, वह कुल प्रगति करता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।५७।।
[यत्र जामयः शोचन्ति तत् कुलम् आशु विनश्यति, यत्र तु एताः न शोचन्ति तत् हि सर्वदा वर्धते ।]
जिस कुल में पारिवारिक स्त्रियां दुर्व्यवहार के कारण शोक-संतप्त रहती हैं उस कुल का शीघ्र ही विनाश हो जाता है, उसकी अवनति होने लगती है । इसके विपरीत जहां ऐसा नहीं होता है और स्त्रियां प्रसन्नचित्त रहती हैं, वह कुल प्रगति करता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः ।
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः ।।५८।।
[अप्रतिपूजिताः जामयः यानि गेहानि शपन्ति, तानि कृत्या आहतानि इव समन्ततः विनश्यन्ति ।]
जिन घरों में पारिवारिक स्त्रियां निरादर-तिरस्कार के कारण असंतुष्ट रहते हुए शाप देती हैं, यानी परिवार की अवनति के भाव उनके मन में उपजते हैं, वे घर कृत्याओं के द्वारा सभी प्रकार से बरबाद किये गये-से हो जाते हैं । (कृत्या उस अदृश्य शक्ति की द्योतक है जो जादू-टोने जैसी क्रियाओं के किये जाने पर लक्षित व्यक्ति या परिवार को हानि पहुंचाती है ।)
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः ।।५८।।
[अप्रतिपूजिताः जामयः यानि गेहानि शपन्ति, तानि कृत्या आहतानि इव समन्ततः विनश्यन्ति ।]
जिन घरों में पारिवारिक स्त्रियां निरादर-तिरस्कार के कारण असंतुष्ट रहते हुए शाप देती हैं, यानी परिवार की अवनति के भाव उनके मन में उपजते हैं, वे घर कृत्याओं के द्वारा सभी प्रकार से बरबाद किये गये-से हो जाते हैं । (कृत्या उस अदृश्य शक्ति की द्योतक है जो जादू-टोने जैसी क्रियाओं के किये जाने पर लक्षित व्यक्ति या परिवार को हानि पहुंचाती है ।)
तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः ।
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च ।।५९।।
[तस्मात् भूतिकामैः नरैः एताः (जामयः) नित्यं सत्कारेषु उत्सवेषु च भूषणात् आच्छादन-अशनैः सदा पूज्याः ।]
अतः ऐश्वर्य एवं उन्नति चाहने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे पारिवारिक संस्कार-कार्यों एवं विभिन्न उत्सवों के अवसरों पर पारिवार की स्त्रियों को आभूषण, वस्त्र तथा सुस्वादु भोजन आदि प्रदान करके आदर-सम्मान व्यक्त करें ।
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च ।।५९।।
[तस्मात् भूतिकामैः नरैः एताः (जामयः) नित्यं सत्कारेषु उत्सवेषु च भूषणात् आच्छादन-अशनैः सदा पूज्याः ।]
अतः ऐश्वर्य एवं उन्नति चाहने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे पारिवारिक संस्कार-कार्यों एवं विभिन्न उत्सवों के अवसरों पर पारिवार की स्त्रियों को आभूषण, वस्त्र तथा सुस्वादु भोजन आदि प्रदान करके आदर-सम्मान व्यक्त करें ।
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।।६०।।
[यस्मिन् एव कुले नित्यं भार्यया भर्ता सन्तुष्टः, तथा एव च भर्त्रा भार्या, तत्र वै कल्याणं ध्रुवम् ।]
जिस कुल में प्रतिदिन ही पत्नी द्वारा पति संतुष्ट रखा जाता है और उसी प्रकार पति भी पत्नी को संतुष्ट रखता है, उस कुल का भला सुनिश्चित है । ऐसे परिवार की प्रगति अवश्यंभावी है।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।।६०।।
[यस्मिन् एव कुले नित्यं भार्यया भर्ता सन्तुष्टः, तथा एव च भर्त्रा भार्या, तत्र वै कल्याणं ध्रुवम् ।]
जिस कुल में प्रतिदिन ही पत्नी द्वारा पति संतुष्ट रखा जाता है और उसी प्रकार पति भी पत्नी को संतुष्ट रखता है, उस कुल का भला सुनिश्चित है । ऐसे परिवार की प्रगति अवश्यंभावी है।
नारी की महत्ता का वर्णन करते हुये ”महर्षि गर्ग” कहते हैं-
यद् गृहे रमते नारी लक्ष्मीस्तद् गृहवासिनी।
देवता: कोटिशो वत्स! न त्यजन्ति गृहं हितत्।।
अर्थात, जिस घर में सद्गुण सम्पन्न नारी सुख पूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती हैं। हे वत्स! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।
देवता: कोटिशो वत्स! न त्यजन्ति गृहं हितत्।।
अर्थात, जिस घर में सद्गुण सम्पन्न नारी सुख पूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती हैं। हे वत्स! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।
ज्ञान-ऐश्वर्य-शौर्य की प्रतीक भारत में सदैव नारी को उच्च स्थान दिया गया है। समुत्कर्ष और नि.श्रेयस के लिए आधारभूत ‘श्री’, ‘ज्ञान’ तथा ‘शौर्य’ की अधिष्ठात्री नारी रूपों में प्रगट देवियों को ही माना गया है। आदिकाल से ही हमारे देश में नारी की पूजा होती आ रही है।
हमारे देश में ‘अर्द्धनारीश्वर’ का आदर्श रहा है। आज भी आदर्श भारतीय नारी में तीनों देवियाँ विद्यमान हैं। अपनी संतान को संस्कार देते समय उसका ‘सरस्वती’ रूप सामने आता है। गृह प्रबन्धन की कुशलता में ‘लक्ष्मी’ का रूप तथा दुष्टों के अन्याय का प्रतिकार करते समय ‘दुर्गा’ का रूप प्रगट हो जाता है। अत. किसी भी मंगलकार्य को नारी की अनुपस्थिति में अपूर्ण माना गया। पुरुष यज्ञ करें, दान करे, राजसिंहासन पर बैठें या अन्य कोई श्रेष्ठ कर्म करे तो ‘पत्नी’ का साथ होना अनिवार्य माना गया।
वेदों के अनुसार सृष्टि के विधि-विधान में नारी सृष्टिकर्ता ‘श्रीनारायण’ की ओर से मूल्यवान व दुर्लभ उपहार है। नारी ‘माँ’ के रूप में ही हमें इस संसार का साक्षात दिग्दर्शन कराती है, जिसके शुभ आशीर्वाद से जीवन की सफलता फलीभूत होती है। माँ तो प्रेम, भक्ति तथा श्रध्दा की आराध्य देवी है। तीनों लोकों में ‘माता’ के रूप में नारी की महत्ता प्रकट की गई है। जिसके कदमों तले स्वर्ग है, जिसके हृदय में कोमलता, पवित्रता, शीतलता, शाश्वत वाणी की शौर्य-सत्ता और वात्सल्य जैसे अनेक उत्कट गुणों का समावेश है, जिसकी मुस्कान में सृजन रूपी शक्ति है तथा जो हमें सन्मार्ग के चरमोत्कर्ष शिखर तक पहुँचने हेतु उत्प्रेरित करती है, उसे ”मातृदेवो भव” कहा गया है।
नारी का सम्मान हिन्दू धर्म की स्मृतियों में यह नियम बनाया गया कि यदि स्त्री रुग्ण व्यक्ति या बोझा लिए कोई व्यक्ति आये तो उसे पहले मार्ग देना चाहिये। नारी के प्रति किसी भी तरह का असम्मान गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा गया। नारी यदि शत्रु पक्ष की भी है तो उसको पूरा सम्मान देने की परम्परा बनाई।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘रामचरित मानस’ में लिखा है कि भगवान श्री राम बालि से कहते हैं-
अनुज बधू, भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहिं कुदृष्टि विलोकई जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।।
इन्हहिं कुदृष्टि विलोकई जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।।
अर्थात; छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्र की पत्नी कन्या के समान होती हैं। इन्हें कुदृष्टि से देखने वाले का वध कर देना कतई पाप नहीं है।
भारतीय संस्कृति हमेशा ही मातृ सत्तात्मक संस्कृति रही हैं यहाँ पुत्रो को माता के नाम से जाना जाता रहा हैं जैसे भगवान राम को कौशल्या नंदन, अर्जुन को कौन्तेय, भगवान कृष्ण को देवकीनंदन और यशोदानंदन और भगवान गणेश को गौरीपुत्र कहा जाता हैं, ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनमे माता के नाम पर ही सन्तान की पहचान प्रचलित थी।
भारतीय संस्कृति हमेशा ही मातृ सत्तात्मक संस्कृति रही हैं यहाँ पुत्रो को माता के नाम से जाना जाता रहा हैं जैसे भगवान राम को कौशल्या नंदन, अर्जुन को कौन्तेय, भगवान कृष्ण को देवकीनंदन और यशोदानंदन और भगवान गणेश को गौरीपुत्र कहा जाता हैं, ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनमे माता के नाम पर ही सन्तान की पहचान प्रचलित थी।
हिन्दू संस्कृति अपनी कन्याओं को प्राचीन काल में स्वयंवर की अनुमति देता था आज भी विवाहों के सभी प्रकार स्त्री को वर चुनने के सर्वाधिकार देते हैं माता सीता, द्रौपदी के स्वयंवर के विषय मे हमारे धर्मग्रन्थों से जानकारी मिलती हैं।
भारत में हिन्दू धर्म की परम्परा रही है कि छोटी आयु में पिता को बड़े होने (विवाह) के बाद पति को तथा प्रौढ़ होने पर पुत्र को नारी की रक्षा का दायित्व है। यही कारण था कि हमारी संस्कृति में प्राचीन काल से ही महान नारियों की एक उज्ज्वल परम्परा रही है। सीता, सावित्री, अरून्धती, अनुसुइया, द्रोपदी जैसी तेजस्विनी; मैत्रेयी, गार्गी अपाला, लोपामुद्रा जैसी प्रकाण्ड विदुषी, और कुन्ती,विदुला जैसी क्षात्र धर्म की ओर प्रेरित करने वाली तथा एक से बढ़कर एक वीरांगनाओं के अद्वितीय शौर्य से भारत का इतिहास भरा पड़ा है। स्वयं माता सीता धनुर्विद्या की योग्य जानकर थी।
प्राचीन भारत में महिलाएं काफी उन्नत व सुदृढ़ थीं। समाज में पुत्र का महत्व जरूर था, पर पुत्रियों को समान अधिकार और सम्मान मिलता था। मनु ने भी बेटी के लिए संपति में चौथे हिस्से का विधान किया। उपनिषद काल में पुरुषों के साथ स्त्रियों को भी शिक्षित किया जाता था। सहशिक्षा व्यापक रूप से दिखती है, लव-कुश के साथ आत्रेयी पढ़ती थी। यहाँ तक की नारी को सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी।
वर्तमान काल खण्ड में भी महारानी अहल्याबाई, माता जीजाबाई, चेन्नमा, राजमाता रूद्रमाम्बा, दुर्गावती और महारानी लक्ष्मीबाई जैसी महान नारियों ने अपने पराक्रम की अविस्मरणीय छाप छोड़ी । इतना ही नहीं, पद्मिनी का जौहर, मीरा की भक्ति और पन्ना के त्याग से भारत की संस्कृति में नारी को ‘ध्रुवतारे’ जैसा स्थान प्राप्त हो गया। भारत में जन्म लेने वाली पीढ़ियाँ कभी भी नारी के इस महान आदर्श को नहीं भूल सकती। हिन्दू संस्कृति दुनिया की एक मात्र संस्कृति हैं जिसमें वर्ष के 18 दिन नारी की पूजा होती हैं ऐसा उदाहरण आपको पूरे संसार में कही नही नही मिलेगा।
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