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जज साहब का लोकतंत्र खतरे में


स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायधीशों ने शुक्रवार को मीडिया के सामने आकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा की प्रशासनिक कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद चारों जजों ने एक चिट्ठी जारी की, जिसमें गंभीर आरोप लगाए गए हैं। जजों के मुताबिक यह चिट्ठी उन्होंने चीफ जस्टिस को लिखी थी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को संबोधित 7 पन्नों के पत्र में जजों ने कुछ  मामलों की नियुक्तियों  को लेकर अपनी  नाराजगी जताई है। जजों का आरोप है कि चीफ जस्टिस की ओर से कुछ केस को चुनिंदा बेंचों और जजों को ही दिया जा रहा है। जजों ने लिखा है कि


1.हमें घोर दुख और चिंता है इसलिए लेटर लिख रहें है। यह सही होगा कि आपको लेटर के जरिये मामले को बताया जाय। हाल फिलहाल  में जो आदेश पारित किये उसका न्यायिक प्रक्रिया  पर दुष्प्रभाव हुआ है साथ ही चीफ जस्टिस के ऑफिस और हाई कोर्ट के प्रशासन पर सवाल उठा है।


2. यह जरूरी है कि उक्त सिद्धान्त का पालन हो और सीजेआई पर भी वह लागू है। सीजेआई स्वयं से उन मामलों में अथॉरिटी के तौर पर आदेश नहीं दे सकते, जिन्हें किसी और उपयुक्त बेंच ने सुना हो चाहे जजों की गिनती के हिसाब से ही क्यों न हो। उक्त सिद्धान्त की अवहेलना अनुचित, अवांछित और अशोभनीय है। इससे कोर्ट की गरिमा पर संदेह उत्पन्न होता है।

3. 27 अक्टूबर, 2017 को आर.पी. लूथरा vs केंद्र सरकार  को आपने सुना था। पर एमओपी मामले में सरकार को पहले ही कहा जा चुका है कि वह इसे फाइनल करे। ऐसे मामलों को संवैधानिक बेंच को ही सुनना चाहिए कोई और बेंच नहीं सुन सकता।

- एमओपी के लिए निर्देश के बाद भी सरकार चुप है ऐसे में ये माना जाय कि सरकार उसे मान चुकी है। कोई और बेंच उस पर टिप्पणी न करे। जस्टिस कर्णन केस का भी जिक्र किया गया और कहा कि जजों की नियक्ति को लेकर सवाल उठे थे और उसे दोबारा देखने को कहा था साथ ही महाभियोग का विकल्प भी तलाशने को कहा था पर फिर भी एमओपी की चर्चा नहीं हुई थी।

- एमओपी गंभीर मामला है अगर मामला सुना भी जाये तो संवैधानिक बेंच ही सुने। ये तमाम बातें गंभीर हैं और चीफ ड्यूटी बाउंड है और सही रास्ता निकलते हुए ठीक करें

जजों द्वारा उठाये गए सवालों पर हमारे भी जज साहब से कुछ सवाल है . सर्वप्रथम की क्या जजों को उचित तंत्र व्यवस्था के तहत अपने सवाल नहीं उठाने चाहिये थे? क्यों उन्होंने मीडिया ट्रायल का रास्ता चुना? क्या ऐसा कर के उन्होंने अपने और चीफ जस्टिस के पद की गरिमा को ठेस नहीं पहुचाई है? क्या ये उचित था कि आप अपनी घर की लड़ाई सड़क पर ला कर उसका तमाशा बनवाये?


पिछले वर्ष कलकत्ता हाई कोर्ट  के जस्टिस कर्णन ने प्रेस कांफ्रेंस कर सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठाए थे, उसके पश्चात सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने उन जज महोदय को सर्वसम्मति से कोर्ट की अवमानना का दोषी बता कर 6 महीने की कारावास का फैसला सुनाया था, उस बेंच में तत्कालीन चीफ और वर्तमान चीफ जस्टिस के साथ साथ वो 5 जज भी थे जो कल प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे , क्या उसी नियम के तहत इन जजों पर भी कार्यवाही नहीं होनी चाहिए जो इन्होंने खुद ही बनाये थे?





ऊपर आप सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण का ट्वीट देख सकते है, जिसमें ये महोदय 10 जनवरी को ट्वीट कर के नेपाल के चीफ जस्टिस के खिलाफ कार्यवाही को सराह रहे हैं और 11 जनवरी को फिर एक ट्वीट किया गया।

अब ये सवाल उठना लाज़मी है कि क्या ये महज इत्तफाक है कि 10 और 11 जनवरी को प्रशांत भूषण सराहते है सीजेआई के खिलाफ मामले को और 12 जनवरी को 5 जज प्रेस कांफ्रेंस कर भारत के सीजेआई के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं ?

गौरतलब है कि आतंकवादी याकूब मेनन के लिए रात 2 बजे कोर्ट खुलवाने वाले वकील प्रशांत भूषण ही थे और याकूब को फाँसी की सजा सुनाने वाले जज दीपक मिश्रा।

गौ-तस्कर पर हमला हो जाता है तो लोकतंत्र खतरे में आ जाता है, तथाकथित दलित की हत्या हो जाती है तब लोकतंत्र फिर से खतरे में आ जाता है, यहाँ तक कि इतिहास से छेड़छाड़ कर फ़िल्मकार फ़िल्म बनाते है, जनता विरोध करती है तो भी लोकतंत्र खतरे में आ जाता है। रोस्टर प्रणाली के तहत चीफ जस्टिस किसी केस को किसी बेंच को सौंपते है जो कि उनका अधिकार है और भाईसाहब हमारा लोकतंत्र फिर से खतरे में आ जाता है। भाई, समझते क्यो नही हमारा लोकतंत्र इतना भी कमजोर नही हैं।

अभिव्यक्ति की आज़ादी का हवाला दे कर आप सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठा देते है, चुनाव आयोग के EVM पर सवाल उठा देते है, चीफ जस्टिस पर सवाल उठा रहे। कोई आपको रोक नही रहा, फिर भी आपको लोकतंत्र खतरे में दिख रहा है।

बहरहाल चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर एक आरोप लगाया जा रहा कि वो गंभीर मामलों से जुड़े केस जूनियर जजो को दे देते है, इस पर अंग्रेज़ी अखबार Times of India ने पड़ताल की और पाया कि पिछले 20 वर्षों से ये सिलसिला चल रहा है, सिर्फ दीपक मिश्रा ही नहीं पुराने चीफ जस्टिस भी यही कर रहे थे, तब इन जज महोदयों को दिक्कत क्यों नहीं हुई?



लोकतंत्र की बात हमारे जज महोदय न ही करें तो बेहतर है। देश और दुनिया मे सबसे अपारदर्शी नियुक्ति प्रतिनियुक्ति और ट्रांसफर व्यवस्था अगर किसी की है तो वह भारतीय जजों की हैं। अंग्रेजी में colleigm सिस्टम और हिंदी में कहे तो भाई भतीजावाद वाला सिस्टम यहाँ हैं, जहाँ 1 चीफ जस्टिस और 4 जज मिलकर पूरा न्याय तंत्र तय कर देते हैं।

यह समझ लीजिए की लोकतंत्र के तीनों स्तंभ में जनता के प्रति सबसे ज्यादा जवाबदेही जिस न्यायपालिका की बनती है वही आज सबसे कम जवाबदेह है। विधायक सांसद का कार्यकाल 5 वर्षो का हैं कार्यपालिका पर भी समयबद्ध कार्य करने का नियम हैं पर न्यायपालिका पर कुछ भी लागू नहीं होता। 1984 सिख दंगे हो या भोपाल गैस कांड, 34 वर्षो से न्याय की आस ही ताक रहे। रामजन्मभूमि का मुद्दा जो कि 100 करोड़ हिन्दुओ के आस्था से जुड़ा मामला है उस केस की गति इतनी है कि 25 वर्षो में मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच पाया हैं।

सच्चाई यह हैं कि दंगो पर SIT का गठन करना ,जस्टिस चन्द्रचूड़ जी को उसका जज नियुक्त करना, राम मंदिर मुद्द्दे पर कांग्रेसी नेता और वकील कपिल सिब्बल को फटकार लगाना, NJI मुद्द्दे पर सरकार के पक्ष से सहमति जताना, बस यही गुनाह है जस्टिस दीपक मिश्रा है, बाकी पत्र में  उठाये गए मुद्द्दे तो सिर्फ ढाल है हमला करने के लिए।

राजनीति का आलम यह हैं कि इस मुद्द्दे को भुनाने के लिए अतिउत्साह में वामपंथी नेता D राजा उन पांचो जजों से मिल लिए जो सुबह से ये बोल रहे थे कि मुद्दा गैर राजनीतिक है।



राहुल गांधी जी "लोकतंत्र खतरे में है" वाला राग अलाप अपनी रोटियां सेंकने के प्रयास में थे परंतु Bar council of इंडिया ने बयान जारी कर के कड़े शब्दों में निंदा कर दी है।

अंततः हम यही कहेंगे आप सरकार का विरोध करें उसकी नीतियों का विरोध करे ,वो आपका लोकतांत्रिक अधिकार है पर ये बर्दाश्त नहीं किया जा सकता कि अपना राजनैतिक हित साधने  देश को चलाने वाली संस्थाओं का विरोध करें ,देश के खिलाफ बोले।


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लेखक से ट्विटर पर मिले - अंकुर मिश्रा (@ankur9329)





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