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हज सब्सिडी के नाम पर चल रहा था धार्मिक भेदभाव



भारत सरकार ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए मुस्लिम तीर्थयात्रियों को दी जाने वाली हज सब्सिडी को समाप्त कर दिया। वैसे तो यह सब्सिडी आज़ादी के पूर्व से ही अंग्रेज़ी शासनकाल के समय से ही दी जा रही थी, परंतु 1959 में पंडित नेहरू की सरकार ने हज एक्ट बनाकर इस सब्सिडी का और विस्तार कर दिया था, उस हज एक्ट में सिर्फ सऊदी अरब ही नही बल्कि इराक ईरान सीरिया और जॉर्डन के भी मुस्लिम धार्मिक स्थलों की यात्रा के लिए तत्कालीन नेहरू सरकार ने सब्सिडी देने का प्रावधान बनाया गया था।

गौरतलब है कि पंडित नेहरू धर्मनिपेक्षता के झंडाबरदार थे और उन्होंने गुजरात के सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए सरकारी मदद देने से इनकार कर दिया था, यहाँ तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद जी को को वहां ना जाने की सलाह दी थी, उनका मानना था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और राष्ट्रपति के किसी मंदिर के कार्यक्रम में जाने से ग़लत संकेत जाएगा. हालांकि, डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उनकी राय नहीं मानी। नेहरू ने ख़ुद को सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण से अलग रखा था और सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र तक लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि सोमनाथ मंदिर परियोजना के लिए सरकारी फ़ंड का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।

खैर हम अपने विषय पर आगे बढ़ते हैं, एक आंकड़े के अनुसार सन 2000 से आज की तारीख तक करीब 15 लाख मुसलमान  हज सब्सिडी का लाभ ले चुके हैं। सन 2008 से प्रत्येक वर्ष सवा लाख के ऊपर लोग हज यात्रा पर मक्का जाते है। हज सब्सिडी में हवाई यात्रा का किराया, मेडिकल सेवा के साथ रहने और खाने की व्यवस्था भी समाहित होती हैं।

औसतन प्रत्येक व्यक्ति का हवाई किराया 75 हज़ार रुपये होता है और इसमें दवाई रहने खाने का 5 हज़ार जोड़ दे तो करीब 80 हज़ार प्रति व्यक्ति सब्सिडी बैठती है। एक अनुमान के मुताबिक 2018 में करीब एक लाख 75 हज़ार मुसलमान हज यात्रा को जाएंगे, अब इस 1.75 लाख का 80 हज़ार से गुणा किया जाए तो कितना होगा !

खैर हम ये  कैलकुलेशन उन लोगो पर छोड़ देते है जो मुम्बई अहमदाबाद बुलेट ट्रेन के खर्चे का हिसाब लगाया करते थे, वहीं हमें बताएं कि इतनी सब्सिडी बचा कर सरकार कहाँ कहाँ विकास कार्यो में ये पैसा खर्च कर सकती है।

वैसे तो सरकार का ये फैसला सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अनुसरण मात्र है और देखा जाए तो इस पर कोई सवाल ही नहीं उठना चाहिये था, परंतु सरकार कोई फैसला ले और विरोधी उस पर सवाल न उठाएं ऐसा तो सम्भव ही नहीं हैं।
मई 2012 में अल्तमस कबीर और रंजना देसाई की 2 बेंच की कोर्ट ने बी.एन. शुक्ला और भाजपा के राज्य सभा संसद प्रफुल्ल गोराडिया द्वारा लगाई गई जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए भारत सरकार को ये आदेश जारी किया था कि वो अगले 10 वर्ष के भीतर (2022 तक ) हज यात्रा पर दी जाने वाली सब्सिडी को पूर्णतः समाप्त कर दे।

सरकार ने दिए गये समय से 4 वर्ष पूर्व ही अपना काम कर दिया, कायदे से सरकार की सराहना की जानी चाहिए कि उसने 4 वर्षो की सब्सिडी का भी पैसा बचा लिया, पर सराहना की बजाय सरकार को उल्टा उलाहना मिल रही है।
कुछ लोगो को कहना है कि जब 2022 तक का समय दिया गया था तो सरकार को क्या जल्दी थी कि 2018 से ही फैसले को लागू कर दिया। मतलब सरकार समय से काम न करे तो दिक्कत और समय से पहले काम निपटा ले तो भी दिक्कत!!
फिर कुछ लोगो का कहना है कि हज सब्सिडी बन्द कर दी है तो मानसरोवर, चारधाम यात्रा और कुम्भ मेले पर भी सरकार खर्च करना बंद करे ..


हज यात्रा और कुम्भ की तुलना करना सेब और सन्तरे की तुलना करने जैसा है। जहाँ हज सब्सिडी किसी एक व्यक्ति का निजी हित साधती है वहीं कुम्भ मेला हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि भारत वर्ष की सभ्यता से जुड़ी सांस्कृतिक धरोहर है, और सरकार जो पैसा ख़र्च करती है वो किसी एक व्यक्ति का निजी हित साधने के लिए नहीं बल्कि मेले की व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने, पर्यटन को बढ़ावा देने, देश की संस्कृति से दुनिया को अवगत कराने, क्षेत्र के व्यापार को मजबूत करने के लिए करती है।


एक आंकड़े के मुताबिक प्रयागराज के महाकुंभ 2013 में सपा सरकार ने 2500 करोड़ रुपये खर्च किये थे और करीब 12000 करोड़ का बिजनेस कुम्भ में हुआ, मतलब सपा सरकार ने कुम्भ आयोजन से उल्टा पैसा कमाया, इसको इन्वेस्टमेंट रिटर्न्स की तरह भी देखा जा सकता है।

दूसरी चीज़ हिन्दुओ को सब्सिडी देना तो छोड़िए कुम्भ मेले के दौरान बस और ट्रेन के किराए में उल्टा वृद्धि और कर दी जाती है, मुग़ल काल मे गैरमुसलमानों पर जजिया टैक्स लगता था अब आज़ाद भारत मे  सरचार्ज लग रहा है ।

एक बार कुम्भ को लेकर विरोधी मान भी जाएं तो भी मानसरोवर और तीर्थ यात्रा पर रियायतों का सवाल उठाएंगे, तर्क ये देंगे कि सेक्युलर देश मे मानसरोवर यात्रा पर सब्सिडी क्यों ? 

सबसे पहली बात तो ये है विरोध करने वालो को कोर्ट का आर्डर पढ़ने की जरूरत है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहीं भी ये नही कहा कि सेक्युलर देश होने के चलते ये सब्सिडी खत्म की जाए।

कोर्ट में कुरान का हवाला दे कर इसको खत्म करने का अनुरोध किया गया था जिसे कोर्ट ने मानते हुए आदेश दिया हैं।

कुरान के verse 97 और sura 3 में ये आदेश दिया है की मक्का की हज यात्रा वही व्यक्ति करे जो उसका खर्च व्यय कर सकता है, रियायत का पैसा हराम है।

दूसरी चीज हमें यहाँ यह जानना जरूरी है कि धर्मो को लेकर क्या वाकई  सरकार की भूमिका सेक्युलर है?

जवाब है नहीं. अल्पसंख्यक मुस्लिम और ईसाई समुदाय को जो अधिकार प्राप्त है वो बहुसंख्यक हिन्दू समाज को नहीं।
जहां वक्फ बोर्ड पर सरकार का कोई नियम लागू नही होता वहीं वैष्णो देवी से लेकर तिरुपति बालाजी और पद्मनाभन समेत 1000 से ज़्यादा मंदिरों की कमाई पर केंद्र व राज्य सरकारों का कब्ज़ा है।


अगर वाकई में धार्मिक अनुष्ठान और तमाम धार्मिक संस्थानों को स्वायत्तता देनी है तो भारत सरकार को मंदिरों मठों पर से अपना कब्जा छोड़ना होगा, तभी सही मायने में आर्टिकल 27 का पालन हो पायेगा ।

मज़े की बात ये है कि जब 2012 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था, तब मुस्लिम संगठनों सहित तमाम नेता मंत्रियों खासकर मुस्लिम समुदाय ने इसका स्वागत किया था, पर अब जबकि 6 वर्षो बाद  सरकार ने इसको लागू करने का फैसला किया है  तो मुस्लिम नेता इसका विरोध कर रहे है ..

इसके पीछे शायद कारण ये हो कि 2012 में देश मे UPA सरकार थी जो मुस्लिम तुष्टिकरण की अपनी राजनीति करती है, तो इन नेताओं संगठनों को ये उम्मीद नहीं होगी कि भविष्य में ये कभी लागू होगा, पर निज़ाम बदला पालिसी बदली तो विरोधियों के सुर भी बदल गए।

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लेखक से ट्विटर पर मिले - अंकुर मिश्रा (@ankur9329)




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