एक तरफ अमेरिका अपनी न्यायव्यवस्था को आधुनिक तकनीक की मदद से मशीनों से नवनिर्मित कर रहा है, जिसमें जजों की जगह रोबोट लेने वाले हैं। एक तरफ हम हैं जहाँ हमारी न्यायपालिका सबसे भष्ट्र हैं, जहाँ न्यायधीशों को एक पीढीनुमा तरीके से निर्वाचित किया जाता है, दूसरे व्यवसायों के मुकाबले अधिक छुट्टियां नसीब होती हैं। फलस्वरूप करोड़ों केस बिना सुनवाई के कोर्ट में सड़ते रहते हैं, तो कुछ केसों में अपराधी साफ साफ छूट जाते हैं। देश के नागरिकों के पास बोलने का अधिकार सिर्फ नाम भर का है, अगर आप अदालत के किसी निर्णय पर सवाल करेंगे तो आप अदालत की अवमानना के अपराध में जेल में डाल दिये जायेंगे।
जबकि न्यायपालिका चाहे सलमान खान को बाइज्जत बरी कर दे, लालू को करोड़ो के घोटाले के फलस्वरूप केवल कुछ लाख रुपये का जुर्माना लगाकर एक दो साल की नाम मात्र की सजा दे, कश्मीर में पैलेट गन रुकवा दे, आम जनता सवाल नहीं उठा सकती। इन्हें दही हांडी, जलीकट्टू, होली दिवाली, थियेटर में राष्ट्रगान जैसे मुद्दे ज़रूरी लगते हैं लेकिन इन न्यायधीशों की कलमें देश के सेंसटिव मुकदमों पर कतई नहीं चलती। ये जो ड्रामा चल रहा है, जनता को लग रहा होगा कोई सीरियस मुद्दा होगा, भई अंदर की बात बाहर आई है। जी ऐसा कुछ नहीं है, मतभेद होंगे जरूर लेकिन अपने हिस्से को लेकर, अपने हिस्से की छुट्टियों को लेकर, अपने धार्मिक अवकाशों को लेकर; लेकिन मजाल है जो कुम्भकर्णी निंद्रा में तल्लीन न्यायधीशों की कुर्सी किसी आम इंसान के मुकदमे को जल्दी खत्म करके काम से निवृत्त हो जाये।
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जस्टिस कर्णन याद होंगे, सुप्रीम कोर्ट में भृष्टाचार के किसने संगीन आरोप लगाए थे उन्होंने, लेकिन उनको रिटायरमेंट के समय भी जेल जाना पड़ा। लेकिन सवाल वही का वही रहा कि इनके भष्ट्राचार पर किसी ने जांच नहीं करवाई।
मैं तो उस दिन की कल्पना कर रहा हूँ जब कोई Elon Musk जैसा इंसान इस धरती पर पैदा होगा और इस पुराने ढर्रे पर रेंगती हुई न्यायपालिका में तकनीक के पहिये लगाकर इसे गति देगा। लेकिन ऐसा होना इधर मुश्किल है, क्योंकि इधर टैक्स पेयर्स की एक पालतू गाय/भैंस से ज्यादा औकात नहीं, सरकार जब मर्जी हमारा इस्तेमाल करे और 5 साल बाद दूसरे मालिक को बेचकर कल्टी मार ले। आपने देखा होगा इस देश में वो लोग ज्यादा चौड़े होते हैं जो काम धाम नहीं करते, निहायत निकम्मे और आवारा लोग जैसे JNU गैंग, विदेशी चन्दो पर चलने वाले NGOs, फर्जी राजनेता और अपराधी-गुंडे मवाली। ये केवल बातें करने वाले लोग हैं इनका इस देश की अर्थव्यवस्था में 1% भी योगदान न होगा लेकिन ये लोग हम लोगों से ज्यादा मजे में रहते हैं क्योंकि हमारे माथे पर कैपिटल में C लिखा है, जो हमें सबसे ज्यादा बेवकूफ बनाएगा हम उसे 5 साल के लिए अपना दिल दे बैठेंगे फिर चाहे वो हमारी ही खोपड़ी खोल दे, सब चलेगा जी।
भाई हम लोगों ने ये मान लिया है कि हम चमन हैं जी तभी तो इन मुद्दों पर अभी भी बन रहे हैं हम बेवकूफ-
1. जातिवाद - अगर अंतर्जातीय विवाह प्रचलन में आ जाते तो ये टॉपिक ही क्लोज हो जाता। चूंकि हमारे आजादी वाले नेता लोग बेवकूफ नहीं थे इसलिए उन्होंने जानबूझ कर आरक्षण के रास्ते इसे जिंदा रखा ताकि हम यूं ही एक दूसरे के सर फोड़ते रहें। तुम दलित, ये ब्राम्हण वो दोस्त ये दुश्मन ... वगैरह वगैरह
फायदा किसे मिला? आजतक कट ही रह है न तुम्हारा?
2. बेरोजगारी - सबको डिमांड सप्लाई का नियम पता है लेकिन साहब बच्चों की रेल बनानी है, प्लानिंग तो करने से रहे, चलो मान लिया कि तुम जागरूक हो पढ़लिखकर लेकिन क्या हमारे विदेशों से पढ़े लिखे नेताजी गधे थे क्या जो आजादी के बाद भी एक परिवार नियोजन के नियम नहीं लागू कर पाए? नहीं, उन्होंने इसे भी जिंदा रखा ताकि मुद्दे बने रहें लोगों में गरीबी हो, बेरोजगारी हो ताकि एक न एक नेता मसीहा बनने के नाम पर तुम्हारा कचूमर निकाल सके।
3. शिक्षा - मैकाले जिस शिक्षा पद्धति का निर्माण कर गए थे वो आज भी बड़े उत्साह के साथ पढ़ाई जा रही है, संस्कृत को हिंदुत्व से जोड़ दिया और उर्दू को मुसलमान से ... और झंडा गाड़ दिया अंग्रेजी का। क्या कारण है आज गांवों के लोग कदम से कदम नहीं मिला पा रहे तकनीक के साथ। इसका कारण यही है। चलो भाई मान लिया अंग्रेजी समय की ज़रूरत है ज्ञान होना आवश्यक है फिर ये स्टेट बोर्ड देशी भाषाओं में क्या बच्चों के भविष्य के साथ फुटबॉल खेलने के लिए बने हैं? हमारा ही इतिहास हमें तोड़ मरोड़ कर पढ़ाया जाता रहा है, उसी पर तर्क वितर्क करता हुआ देशी कम्युनिस्ट मानो गर्दन ही मरोड़ देगा आपकी अगर उससे सहमत नहीं हुए तो।
4. सरकारी सहायता - आपने ये नोट किया होगा सरकारी योजनाएं या तो किसी धर्म विशेष के लिए होती हैं (हज सब्सिडी, मान सरोवर यात्रा), या वर्ग विशेष के लिए (SC/ST/OBC) या फिर किसी न किसी तरीके से अंतर प्रदर्शित करने वाले रूप में। क्या बात है आजादी के इतने साल बाद भी हम इतने पिछड़े हैं कि हमसे भेद सरकार ही कर रही है हमारी जबकि हमें समानता का मौलिक अधिकार दे रखा है? क्या करें इस मौलिक अधिकार का ऐरोप्लेन बनाकर उड़ाएं? ये सब जानबूझकर किया जाता है ताकि हर पांच साल में आपका रहा सहा कचूमर भी निकाला जा सके।
5. तकनीक - तकनीक ऐसा मुद्दा है जिसका नाम सुनकर हमारे नेताओं की सबसे ज्यादा सुलगती है। पहले शिक्षा पद्धति अंग्रेजी में थी, मुलायम सिंह और करुणानिधि जैसों ने देशों भाषाओं की वकालत की। पद्धति बदली लेकिन ज़रूरत के मुताबिक फिर से अंग्रेजी को लाना पड़ा। इन सबके बीच जो विद्यार्थी उस समय फंसे वे आज तक अनबूझे जल रहे हैं। जब कंप्यूटर लाया जा रहा था तब इनकी जली पड़ी थी कि करोड़ो लोग बेरोजगार हो जाएंगे आपको लगता है ऐसा हुआ? नहीं! करोड़ो लोगों को रोजगार मिला। आज जब ISRO सेटेलाइट लांच करता है तब भी इस देश में निकम्मों का ऐसा तबका है जो फुटपाथ पर पड़े गरीबों की दुहाई देता था लेकिन अवैध बांग्लादेशी-रोहिंग्या के लिए सरकार से गुजारिश करता है। भाई! तुझे रोना ही क्यों होता है हर अच्छे कदम पर? मेक इन इंडिया की शुरुआत हुई तब इनका रोना शुरू? जब ये लोग ज़िंदगी भर झोला लटकाकर घूमते हैं टैक्स नहीं देते तो टैक्स पेयर्स के पैसे के इस्तेमाल पर सवाल उठाने का हक पहले टैक्स पेयर्स का है, निकम्मों का नहीं।
और मेरी तो एकमात्र यही इच्छा है ये देश चिकित्सा-तकनीक के क्षेत्र में उतना ही आगे जाए जितना सम्राट विक्रमादित्य के समय हुआ करता था। लोगों ने अपनी चेतना ज़रूर खोई है लेकिन स्वभाव वही है बस सही दिशा दी जाए तो हम आज भी दुनियाँ के दांत खट्टे करने का माद्दा रखते हैं। बस गधों की तरह आगे वाले गधे का अनुसरण करने की बजाय जिस दिन हम स्वावलम्बी बनना सीख गए उस दिन इन नेताओं की उपयोगिता खत्म हो जाएगी। हर आदमी दूसरे से बुद्धिमान बनने की कोशिश करता है लेकिन चुनाव वाले चाचा हर पांच साल में फूल पकड़ा कर चले जाते हैं अब डिसाइड करते रहो कि तुन्हें सबसे ज्यादा किसने ठगा - न्यायपालिका ने, मीडिया ने, राजनीति ने, या फिर खुद के दिमाग ने?
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