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भारतीय अर्थव्यवस्था : आंकड़ो की जुबानी और प्रोपोगंडा



कहते हैं किसी एक व्यक्ति को तर्कसंगत तरीके से कोई बात समझाने से कहीं ज्यादा आसान कार्य हैं हज़ारो लोगो को उनके पूर्वाग्रह की दिशा में और भटका देना।

देश की आज की आर्थिक स्थिति पर जो  चिंता जताई जा रही है संपादकीय और न्यूज़ चैनल की डिबेट में उन पर ये उपर्युक्त पंक्ति बिलकुल सटीक बैठती है।

इन सारी ही बहसों में एक कॉमन बात यह है कि ये लोग आंकड़ो और तथ्यों को पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर पेश कर रहे है। ये सभी लोग ऐसा क्यों कर रहे है इसका राजनैतिक आंकलन करने से पहले आइये हम जरा देश के आर्थिक हालात का विस्तार से जायज़ा लेते है। आधुनिक अर्थशास्त्र के कुल आठ मानक होते हैं जिनके आधार पर पूरे विश्व में अर्थव्यवस्थाओं का आंकलन किया जाता है।

Inflation (महंगाई ), current account balance, fiscal deficit, FDI, Foreign reserve, exchange rate, GDP, और Job creation .

आमतौर से कोई भी अर्थव्यवस्था इन आठ मानकों में से अगर 4 से 5 में अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं तो उसे मज़बूत अर्थव्यवस्था माना जाता है, किसी भी देश के लिए 8 के 8 मानकों पर खरा उतरना किसी अपवाद से कम नहीं हैं।
इन आठ मानकों पर भारत आज और पिछले वर्षों में कहाँ ठहरता था उसके आंकड़े इस प्रकार हैं, गौर फरमाइए।

महंगाई


उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ( अंग्रेज़ी: consumer price index या CPI) के आंकड़े बताते हैं की वित्त वर्ष 2013- 14 में अप्रैल-अगस्त में यह 9.4 % थी और चालु वित्त वर्ष 2017- 18 में ये 2.5 % रही हैं।

खाद्य पदार्थो की महंगाई जो आम इन्सान को सबसे बुरी तरफ से प्रभावित करती है वह वित्तीय वर्ष 2013-14 में -12.3 % थी जो चालू वित्तीय वर्ष की 2017-18 में अप्रैल से अगस्त तक  -0.7% रही हैं।

चालू खाता (Current account balance)


यह एक्सपोर्ट और इम्पोर्ट के मध्य का अंतर होता है। सैद्धान्तिक तौर पर यह बहुत कम होना चाहिए या फिर एक्सपोर्ट पॉजिटिव में रहना चाहिए।

वित्तीय वर्ष 2013- 14 में ये जीडीपी का -4.8 % था और अब 2016- 17 में कम हो कर जीडीपी का  -0.7 % में पहुंच गया हैं, यह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अच्छा संकेत हैं। इसका मतलब हैं कि निर्यात आयात की अपेक्षा ज्यादा होने लगा हैं।

राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit)


जब सरकार का खर्च, आमदनी (जिसमें ऋण या उधार शामिल नहीं हैं) से अधिक होता है तो इस अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है, जिसकी पूर्ति सरकार ऋण लेकर करती है।

वित्तीय वर्ष 2011-12 में भारत सरकार का राजकोषीय घाटा 5.9 % था जो की चालु वित्त वर्ष में 3.5 % पर आ गया हैं और साल अंत होने तक सरकार का टारगेट इसको 3 % पर लाने का है।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI)


FDI intelligence रिपोर्ट 2017 के मुताबिक भारत ग्रीनफ़ील्ड इन्वेस्टमेंट को आकर्षित करने में  दुनिया का अग्रणी देश है, यहाँ वह चीन और अमेरिका से भी ऊपर है। ऐसा 2015 में पहली बार हुआ और यह ट्रेंड लगातार 2016- 17 में बना हुआ हैं।

विदेशी मुद्रा कोष (Forex Reserve)


भारत का विदेशी मुद्रा कोष जो 2011- 12 में 292 बिलियन $ डॉलर था वो अब बढ़ कर 2017 सितम्बर के अंत में 402 बिलियन डॉलर हो गया है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार का सबसे सकारात्मक संकेत हैं।

एक्सचेंज रेट 


अप्रैल 2011 से मार्च 2014 के बीच जो एक्सचेंज रेट में उतार चढ़ाव 34 % था वो 2014-2017 के बीच मात्र 4 % का रहा हैं, इसका मतलब हैं कि रुपया डॉलर के मुकाबले स्थायित्व की तरफ बढ़ रहा हैं।

सकल घरेलू उत्पाद विकास दर (GDP growth rate)


एक्सपर्ट के शंका जताने के चलते सबसे ज्यादा चर्चा का विषय रहा है जीडीपी विकास दर। इस बहस में जाने से पहले कुछ आंकड़े देख लीजिये।

अगर हम दामो को स्थिर मान कर जीडीपी विकास दर की तुलना करें तो हम पाएंगे की विकास दर वित्त वर्ष 2011-12 से लेकर 2012-13 तक यह 5.5 % पर स्थिर थी, जो वित्त वर्ष 2015-16  में बढ़कर 8% तक पहुँची और अब यह फिर गिरकर 7.1 % पर पहुँच गयी हैं।

यह ज्यादा चिंता का विषय नही हैं क्योंकि की चालु वित्त वर्ष की प्रथम तिमाही में जीडीपी विकास दर भले 5.6 % रही पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर का मानना है कि अगली तीनो क्वार्टर में ये ऊपर की ही तरफ जाएगा और आखिरी तिमाही में विकास दर 7.7 % तक पहुच जायेगी।

अगर यही ट्रेंड आगे भी चलता रहा तो 2018- 19 में 8+ % की विकास दर के साथ भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के अपने स्थान को बरकरार रखेगी।

रोजगार/ आजीविका के अवसर (Jobs And Livelihood Earning)


पिछले कुछ महीनों से प्रचंड बहस चल रही है कि क्या हमारी अर्थव्यवस्था पर्याप्त नौकरियां उतपन्न कर पा रही है या नहीं।
इस बहस को हवा देने का एक प्रमुख वजह है लेबर ब्यूरो के स्टेटिस्टिक्स । ये एक अप्रचलित प्रणाली है जिससे जॉब क्रिएट का अनुमान लगाया जाता था।

खैर इस प्रणाली से भी अगर हम देखे तो पाएंगे की जहाँ 2014 में 3.26 करोड़ लोग  प्रोविडेंट फण्ड में पैसा जमा कर रहे थे वहीँ आज  2017 में 4.8 करोड़ लोगो के अकाउंट में पैसा जमा हो रहा है।

प्रोविडेंट फण्ड फॉर्मल सेक्टर का एक विशेष हिस्सा होता है, इस लिहाज से हम देखे तो 2014 से अभी तक सिर्फ फॉर्मल सेक्टर में करीब 1.5 करोड़ जॉब दी जा चुकी है।


दूसरा हम आते है मुद्रा योजना पर, 2015 में अपनी शुरुआत से आज की तारीख तक 9.13 करोड़ लोगो को मुद्रा योजना के तहत फंड दिया जा चुका है, जिसमें 2.63 करोड़ लोग ऐसे ही जिन्हें पहली बार व्यापार करने के लिए लोन दिया गया हैं।
कौन है ये उद्यमी जिन्हें पहली बार लोन दिया गया है? ये सब वही लोग है जो इस मुद्रा योजना का लाभ उठाकर बुटीक ब्यूटी पार्लर साइबर कैफे मेडिकल स्टोर, किराना दुकानें खोलेंगे और कम से कम एक व्यक्ति को और रोज़गार देंगे ताकि उनका व्यापार सफलता पूर्वक चलता रहे। जो पहले से व्यापार कर भी रहे है उन्होंने भी इस योजना का लाभ उठाकर अपने व्यापार को और विस्तार और गति दी है। इस योजना का जबरदस्त लाभ मध्यम वर्गीय परिवारों को हो रहा है।
अगर ये आंकड़ा भी आपको प्रभावित नहीं करता तो आइये रोजगार /आबादी का ratio चार्ट देखते हैं।


चार्ट 2000-2016 के रोजगार /आबादी का चार्ट है।

90 के दशक के शुरुआती वर्षो से जो रोजगार में गिरावट आने का ट्रेंड शुरू हुआ था वो सन 2000 में अटल जी की सरकार में आ कर पलटा है।

फिर आया काला दशक


जैसा की चार्ट में आप देख सकते हैं कि 2004-2014 के मध्य मनमोहन सोनिया सरकार के दौरान निरन्तर गिरावट का ट्रेंड जारी रहा। यह जो जॉब मार्किट का सत्यानाश हुआ पिछले एक दशक में, इस ट्रेंड को बदलने में समय लगता हैं पर 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद इस ट्रेंड में एकाएक बदलाव देखने को मिला और 2016 तक ग्राफ वापस से ऊपर की तरफ जाने लगा हैं, जब 2017 के नए आंकड़े आएंगे तो निश्चित तौर पर इस ग्राफ में बड़ा सकारात्मक बदलाव आएगा।

अब एक बार फिर से उन आठ मानकों के विषय में चिंतन कीजिये जिन की हमने शुरुआत में चर्चा की थी। भारतीय अर्थव्यवस्था उन आठो मानकों पर बढ़िया प्रदर्शन कर रहा है जो की दुनिया की कोई भी दूसरी अर्थव्यवस्था नहीं कर पा रही हैं।

मनमोहन सरकार में गिरती हुई अर्थव्यवस्था की वजह से भारत को 2013 में "fragile 5 " ग्रुप में रखा गया था जो वर्ष 2017 में ऐसे ही वहाँ से निकाल कर के best performing economy में शामिल नहीं किया गया है। 

यह तो बात हुई अर्थव्यवस्था के सूचकांक पर, अब बात करते हैं उन रिफॉर्म्स पर जो काला धन को रोकने के लिए बनी।

शैल कम्पनियां


शेल कंपनियां वे कम्पनियाँ हैं जो प्रायः कागजों पर चलती हैं और पैसे का भौतिक लेनदेन नहीं करती पर मनी लॉन्ड्रिंग का आसान जरिया होती हैं। कहा जाता है कि काले धन को सफेद करने के लिए बड़े पैमाने पर शेल कंपनियों का इस्तेमाल किया जाता है। सरकार ने ऐसी 2 लाख ‘शेल’ कंपनियाँ बंद की हैं और उनमें से कइयों के 100 से ज़्यादा बैंक खाते थे। इसमे से तो एक कंपनी के 2134 खाते थे। नोटबंदी से पहले इन खातों में ज़ीरो बैलेन्स था। नोटबंदी में बाद 4,574 करोड़ जमा किये और 4,552 रुपये इन खातों से निकाल लिए गए।

अब जरा बाजार का ताजा हाल लेते हैं



जब देश में मंदी छाई हुई हैं तो यह उपभोक्ता वस्तुएं कौन खरीद रहा हैं, हवाई यात्रा करने वालो की संख्या कैसे बढ़ रही हैं? क्या यह सवाल इन एजेंडाबाज लोगो से नही पूछा जाना चाहिए? यहाँ तक की विश्व बैंक के अध्यक्ष कह रहे हैं कि "भारत में ‘आर्थिक मंदी’ एक भ्रम है. GST की तैयारी से अस्थायी रुकावट आयी है, आर्थिक विकास जल्दी फिर रफ्तार पकड़ लेगा"।

 अब जरा देखिये आर्थिक आंकड़ो पर अंतरराष्ट्रीय रेटिंग देने वाली प्रतिष्ठित संस्था IMF कहती हैं "India tops the charts for emerging market, developing economies in #IMF 's Global Growth Projection for 2018"



अर्थ व्यवस्था की बात यहीं समाप्त होती है। अब हम आते हैं उन राजनैतिक पहलुओं की तरफ जिनकी चलते रातो रात एक्सपर्ट कुकुरमुत्ते की तरह उग आते है और चिंता जताने लगते हैं।

अगर हम एक शब्द में बोले तो इसका कारण है गुजरात विधान सभा चुनाव, याद कीजिये 2012 गुजरात चुनाव से पूर्व अचानक से देश में चर्चा का विषय बना था गुजरात का कुपोषण और जैसे ही चुनाव समाप्त हुए कुपोषण पर लंबे लंबे आर्टिकल लिखने वाले न्यूज़ चैनल पर डिबेट करने वाले भी बरसाती कीड़े की तरह गायब हो गए थे।

इन रायचंदो की चिंता बच्चो का कुपोषण नहीं बल्कि किसी भी कीमत पर नरेंद्र मोदी की छवि धूमिल कर के उनको चुनाव हराना था इसलिए चुनाव से पूर्व कुपोषण का 10 वर्ष पुराना आंकड़ा ला कर खबर चला रहे थे। चुनाव समाप्त हुए और उसके साथ ही इनकी चिंता समाप्त हुई और फिर वापस से पूरी गैंग समाज में साम्प्रदायिकता का जहर घोलने निकल पड़ी।

जो 2015 दिल्ली चुनाव से पहले अचानक से चर्च पर हमले की खबर, बिहार चुनाव से पहले असहिष्णुता और अवार्ड वापसी की ड्रामेबाजी, 2017 यूपी चुनाव से पहले अख़लाक़ हत्याकांड की सुर्खियां बनाती रही।

इन्ही तथाकथित एक्सपर्ट ने नोटबन्दी होते ही फेल घोषित कर दिया और यूपी चुनाव में बीजेपी की हार की भविष्यवाणी कर दी थी। ये ही लोग थे जो गाज़ियाबाद से गाजीपुर तक अखिलेश की लहर बताते नहीं थकते थे।

अगर आप गौर से देखे तो आप पाएंगे कि पिछले तीन वर्षों में चुनाव से पूर्व अचानक से ये लोग बाहर निकल के आते है देश की चिंता करने और चुनाव में मुँह की खाने के बाद ये लोग विलुप्त हो जाते है।


जहाँ तक अर्थव्यवस्था की बात है तो देश की जनता को ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नही हैं, हमारी अर्थव्यवस्था अभी सही ट्रेक पर चल रही हैं जिसे ऊपर आंकड़ो के माध्यम से समझाया भी हैं। दरअसल कांग्रेस के 10 वर्षो के शासनकाल में अर्थव्यवस्था लगातार बीमार होती गयी जिसकी वजह से पिछले तीन वर्षों में सरकार ने नोटबन्दी GST जैसे कई बड़े छोटे कड़वे फैसले लेने पड़े इससे हमारी अर्थव्यवस्था को भविष्य में बड़ा लाभ मिलेगा, ऐसा हम नही कह रहे हैं यह अर्थव्यवस्था के मानकों के सूचकांक बता रहे हैं।

इसी तरह बुलेट ट्रेन पर भी प्रोपोगंडा फैलाया जा रहा हैं असलियत जानने के लिए क्लिक करे :


बुलेट ट्रेन : विकास की सकारात्मक पहल


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