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सारागढ़ी का ऐतिहासिक युद्ध जब 12 हजार अफगानियों को 21 सिक्खों ने चटाई धूल

मेरा मानना हैं इतिहास हमेशा से ही प्रेरणादायी होता है, इतिहास सिर्फ पढ़ने का विषय नहीं हैं यह भूतकाल के अनुभवो की किताब हैं इससे हम सभी को अनुभव का सबक लेना चाहिए, लेकिन आज में जिक्र कर रहा हूँ एक ऐसी भारतीय वीरो की अविस्मरणीय शौर्य गाथा की जो बैटल ऑफ़ सारागढ़ी के नाम से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

भारत भूमि पर अनेक युद्ध लड़े गए चाहे वह महाराणा प्रताप का मुगलो के विरुद्ध लड़ा गया हल्दीघाटी का युद्ध हो या छत्रपति शिवाजी महाराज का मुस्लिम आक्रांताओ के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष, ऐसी ही एक अदम्य साहस की गाथा है सारागढ़ी का युद्ध जो की सन् 1897 में लड़ा गया सारागढ़ी एक छोटा सा गाँव जो की तत्कालीन भारत की नार्थ वेस्ट फ्रंटियर पर स्थित था, और वर्तमान में पाकिस्तान में है।
 
एक तरफ 12 हजार अफगान सैनिक तो दूसरी तरफ 21 सिख अगर आप को इसके बारे नहीं पता तो आप अपने इतिहास से बेखबर है। आपने "ग्रीक सपार्टा" और "परसियन" की लड़ाई के बारे मेँ सुना होगा, इनके ऊपर "300" जैसी फिल्म भी बनी है, पर अगर आप "सारागढ़ी" के बारे में पढ़ेंगे तो पता चलेगा इससे महान लड़ाई भारत की भूमि पर हुई थी, यह बात 1897 की है।

अफगान सैनिक गुलिस्तान और लोखार्ट के किलो पर कब्जा करना चाहते थे। इन किलों को महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था और इन किलों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सारागढी सुरक्षा चौकी में तैनात 36वीं सिख रेजिमेन्ट  के 21 जवान के कंधों पर थी, ये सभी जवान माझा क्षेत्र के थे और सभी सिख थे। लगभग 118 पहले हुई इस जंग में सिख सैनिकों के अतुल्य पराक्रम ने इस गाँव को दुनिया के नक़्शे में ‘महान भूमि’ के रूप में चिन्हित कर दिया। ब्रिटिश शासनकाल में 36 सिख रेजीमेंट जो की ‘वीरता का पर्याय’ मानी जाती थी, सरगढ़ी चौकी पर तैनात थी। यह चौकी रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण गुलिस्तान और लाकहार्ट के किले के बीच में स्थित था, यह चौकी इन दोनों किलों के बीच एक कम्यूनिकेशन नेटवर्क का काम करती थी। ब्रिटिश इंटेलीजेंस स्थानीय कबीलायी विद्रोहियों की बगावत को भाँप न सके, और सितम्बर 1897 में आफरीदी और अफगानों ने हाथ मिला लिया।

अगस्त के अंतिम हफ्ते से 11 सितम्बर के बीच इन विद्रोहियों ने असंगठित रूप से किले पर दर्जनों हमले किये, परन्तु सिख वीरों ने उनके सारे आक्रमण विफल कर दिए, 12 सितम्बर की सुबह करीब 12 से 15 हजार पश्तूनों ने लाकहार्ट के किले को चारों और से घेर लिया। हमले की शुरुआत होते ही, सिग्नल इंचार्ज ‘गुरुमुख सिंह’ ने ले. क. जॉन होफ्टन को हेलोग्राफ पर यथास्थिती का ब्योरा दिया, परन्तु किले तक तुरंत सहायता पहुँचाना काफी मुश्किल था।

मदद की उम्मीद लगभग टूट चुकी थी, लांस नायक लाभ सिंह और भगवान सिंह ने गोली चलाना शुरू कर दिया, हजारों की संख्या में आये पश्तूनों की गोली का पहला शिकार बनें भगवान सिंह, जो की मुख्य द्वार पर दुश्मन को रोक रहे थे, उधर सिखों के हौंसले से, पश्तूनों के कैम्प में हडकंप मचा था, उन्हें ऐसा लगा मानो कोई बड़ी सेना अभी भी किले के अन्दर है। उन्होंने किले पर कब्जा करने के लिए दीवाल तोड़ने की दो असफल कोशिशें की, हवलदार इशर सिंह ने नेतृत्व संभालते हुए, अपनी टोली के साथ “जो बोले सो निहाल,सत श्री अकाल” का नारा लगाया और दुश्मन पर झपट पड़े हाथापाई मे 20 से अधिक पठानों को मौत के घात उतार दिया। गुरमुख सिंह ने अंग्रेज अधिकारी से कहा,”हम भले ही संख्या में कम हो रहे हैं,पर अब हमारी हाथों में 2-2 बंदूकें हो गयी हैं हम आख़िरी साँस तक लड़ेंगे”, इतना कह कर वह भी जंग में कूद पड़े।

इस भीषण लड़ाई में  600-1400 अफगान मारे गये और अफगानो की भारी तबाही हुयी, सिक्ख जवान आखिरी सांस तक लड़े बन्दूक की गोलिया खत्म होने के बाद भी चाकू तलवार से इन आक्रांताओ का सामना किया और उन्हें किले में प्रविष्ट होने से 24 घंटे रोक कर रखा 12 सितम्बर को अंग्रेज फौज मदद के लिए पहुंची, अफगानो की हार हुई। जब ये खबर यूरोप पंहुची तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी, ब्रिटेन की संसद में शायद यह पहला मौका था जब सभी सांसदो ने खड़े होकर इन 21 वीरो की बहादुरी को सलाम किया और इन सभी जवानों को मरणोपरांत इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट दिया गया यह आज के परमवीर चक्र के बराबर था।

भारत के सैन्य इतिहास का ये युद्ध के दौरान सैनिको द्वारा लिया गया सबसे शौर्यवान अंतिम फैसला था, यहाँ तक की UNESCO ने इस लड़ाई को अपनी 8 महानतम लड़ाइयो में शामिल किया। इस लड़ाई के आगे स्पार्टन्स की बहादुरी फीकी पड़ गयी, पर मुझे दुख होता है कि जो बात हर भारतीय को पता होनी चाहिए उसके बारे में कम लोग ही जानते है, इस युद्ध की कहानियां यूरोप के स्कूलो में पढाई जाती है पर हमारे यहाँ शायद ही बच्चे इस लोमहर्षक युद्ध के बारे में जानते हो, लेकिन अगर उन्ही बच्चो से स्पार्टा की लड़ाई पूछी जाए तो वह कैरेक्टर सहित पूरे युद्ध के बारे में बता देंगे। इस महान गौरवशाली घटना का जिक्र आधुनिक भारत के इतिहास में कहीं नहीं है, हमारी पीढ़ी को अपने गौरवशाली सनातनी इतिहास से वंचित रखा गया, और हमेशा हमे यह बताया गया कि हम कमजोर रहे कायर रहे, एक प्रकार का यह भी मनोवैज्ञानिक युद्ध हैं जिसमे एक देश की पीढ़ी के दिमाग में भर दिया जाये कि "आप कमजोर लोग हो, और आपको हमारी सहायता की जरूरत हैं" और मैकाले की शिक्षा प्रणाली ने यह काम बखूबी किया।

बैटल ऑफ़ सारागढ़ी जैसी अभूतपूर्व घटना का हमारे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल न होना आधुनिक भारत के नेहरू प्रिय वामपंथी इतिहासकारो की घिनौनी साजिश है, आपको एक उदाहरण देता हूँ इन वामपंथियों की, हम सभी से पूछा जाए की अंग्रेजो के विरुद्ध भारत में पहला सशस्त्र विद्रोह कब हुआ था? जवाब होगा सन् 1857,  इतिहास की किताबो से लेकर पाठ्यपुस्तकों में यही लिखा है की अंग्रेजो के खिलाफ पहली क्रांति 1857 में हुई थी, मगर जरा ठहरिये और स्वयं की जानकारी दुरुस्त कीजिये सन् 1817 में ही अंग्रेजो के खिलाफ पहला सशस्त्र विद्रोह किया जा चूका था, इसे किया था तत्कालीन खुर्दा रियासत (अब ओडिशा) के राजा जगदबंधु विद्याधर महापात्रा ने, मगर अंग्रेजो और आजाद भारत का इतिहास लिखने वाले नेहरुप्रिय वामपंथी इतिहासकारो ने षड्यंत्र पूर्वक इस तथ्य को इतिहास से गायब कर दिया।

भारतीय इतिहास के साथ खिलवाड़ के मुख्य दोषी वे इतिहासकार हैं जिन्होंने नेहरू की सहमति से प्राचीन हिन्दू गौरव को उजागर करने वाले इतिहास को काला कर दिया और इस गौरव को कम करने वाले उन इतिहास खंडो को अत्यधिक प्रचारित किया जो नेहरू के धर्म निरपेक्षता के खांचे में फिट बैठते थे।

बैटल ऑफ़ सारागढ़ी अपूर्व शौर्य दृढ इच्छाशक्ति की वो अविस्मरणीय घटना है जिस पर प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिए । यह जानते समझते हुए की मृत्यु अवश्यसंभावी है फिर भी मृत्यु समक्ष दृढ अडिग खड़े रहना, खड़े रहना ही नहीं अपितु मृत्यु से लड़ना लगभग असंभव ही है और इस असम्भव कार्य को किया था 36वीं सिख रेजिमेंट के 21 रणबाँकुरों ने, बैटल ऑफ़ सारागढ़ी की स्मृति में हर साल सिख रेजिमेंट 12 सितम्बर को "सारागढ़ी डे" मनाती है अमृतसर में सारागढ़ी के वीरो की स्मृति मे 1904 में गुरुद्वारा बनाया गया जहाँ पर 21 शहीदो के नाम अंकित है ।

 इन वीरो के अदम्य साहस,अद्भुत पराक्रम, कर्तव्य के प्रति समर्पण से हम सभी को अवगत कराने का बीड़ा उठाया है सुप्रसिद्ध अभिनेता 'अक्षय कुमार' ने , अक्षय बैटल ऑफ़ सारागढ़ी पर फ़िल्म "केसरी" बना रहे है जो गौरवान्वित करेगी और हमारी भावी पीढ़ी को जागृत करेगी मातृभूमि के हम सनातनियो की कर्तव्य परायणता को, सम्मान देगी उन सभी 21 हुतात्माओं को जो की षड्यंत्र पूर्वक गायब कर दिए गए आम जान मानस के स्मृति पटल से।

डिस्कवरी के jeet चैनल पर भी 21 सरफरोश सारागढ़ी के नाम से धारावाहिक शुरू किया गया हैं।

बैटल ऑफ़ सारागढ़ी भले ही अफगान जीते हो परन्तु  इतिहास उसे याद करता है 36 रेजिमेंट के 21 सिख लड़ाकों के कारण।

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