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अभिव्यक्ति की स्वतंन्त्रता का डबल स्टैण्डर्ड



मत कहो आकाश में कोहरा घना है,

ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

दुष्यंत कुमार की कविता की ये पंक्तियां आज जीवंत हो उठती है जब अभिव्यक्ति की आज़ादी पर देश मे लंबी बहस चल रही हो, फिल्मकारों को क्या दिखाना चाहिए क्या नही दिखाना चाहिए? पत्रकारो को क्या लिखना और बोलना चाहिए क्या नहीं इस मुद्दे पर तमाम अखबारों और न्यूज़ चैनल पर घण्टो डिबेट हो चुकी हो।

दो महीने पूर्व का वाकया है गौरी लंकेश की हत्या हुई थी, जिस पर हमने ब्लॉग भी लिखा था और आप लोगो का भरपूर आशीर्वाद भी मिला, यह पोस्ट आज भी हमारे ब्लॉग की सबसे ज्यादा पेजव्यू वाली पोस्ट हैं। वह लेख पढ़ने के लिए नीचे क्लिक करे।

गौरी लंकेश हत्याकांड : वामपंथ की सच्चाई 


लेकिन आज की तारीख में गौरी लंकेश हत्याकांड की जांच की यह स्थिति हैं कि आज तक कर्नाटक राज्य पुलिस उस केस को सॉल्व नहीं कर पायी, लेकिन उस निठल्ली सरकार से सवाल करने के बजाय पहले दिन से ही पत्रकारो ने गौरी लंकेश की हत्या के लिए दक्षिणपंथी संगठनों से लेकर प्रधानमंत्री तक को कटघरे में खड़ा कर दिया था। वही दूसरी तरफ, गौरी लंकेश की हत्या के दिन से लेकर आज की तारीख तक पचासों संघ कार्यकर्ताओ की केरल में हत्या हो चुकी हैं और यह मैं यकीन से बोल सकता हूँ की आप बिना गूगल किये दो के भी नाम नही बता पाएंगे, क्योंकि इस दौरान हमारा मीडिया बाबा गुरमीत की गुफा में हनीप्रीत को खोजने में व्यस्त था।

बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा हैं कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कही जाने वाली पत्रकारिता अब सिर्फ पक्षकारिता बनकर रह गयी हैं, जिनके कंधो पर समाज को नई दिशा दिखाने की जिम्मेदारी थी, जो सच के पहरेदार थे अब वो लोग एकपक्षीय होकर जज बनकर फैसले सुनाने लगे हैं, पत्रकारिता की खाल ओढ़ कर अब अपने राजनीतिक मालिको के लिए एजेंडा चलाने लगे हैं, कुल मिलाकर देखा जाए तो पत्रकार मुहल्ले की चुगलखोर आंटियों की तरह व्यवहार करने लग गए हैं।

ऐसे माहौल में कुछ पत्रकारों ने अभी भी पत्रकारिता की इज्जत बचाकर रखी हैं जो निष्पक्षता के साथ निर्भीक होकर अपनी राय रखते हैं, ऐसे ही रोहित सरदाना हैं जो "आज तक" के पत्रकार हैं, रोहित सरदाना उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते है जो राष्ट्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी को सर्वोपरि रखता है और उस पर सवाल उठाने का माद्दा भी अगर ऐसे चंद राष्ट्रवादी पत्रकारो को डरा धमका के उन्हें चुप करा दिया गया तो अभिव्यक्ति की आजादी की भी हमेशा के लिए तिलांजलि हो जाएगी।

ताजा मामला संजय भंसाली की फ़िल्म पद्मावती को लेकर हैं जिस पर रोहित सरदाना को बेबाक राय रखने के लिए जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं। सबसे पहले तो आप संजय लीला भंसाली और उनके साथी फिल्मकारों के कारनामों के विषय मे जान ले ताकि आपको पता चल सके कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में किस टाइप के फिल्मकार हैं।

संजय भंसाली ने इसके पहले जोधा-अकबर पर फ़िल्म बनाई थी और अपने हिसाब से इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश किया था इसके लिए भी उन्हें चेतावनी दी गयी कि इस तरह की इतिहास से छेड़छाड़ बर्दाश्त नही की जा सकती हैं, लेकिन भंसाली का तो विवादों से चोली दामन का साथ हैं, इसके बाद उन्होंने मराठा कुल के वीर योद्धा जिन्हें भारत का नेपोलियन कहा जाता हैं जिन्होंने कुल 40 युद्ध लड़े और सबमे विजयी रहे ऐसे वीर बाजीराव पेशवा पर फ़िल्म बनाई, जहाँ वीर योद्धा को दिलफेंक आशिक से ज्यादा कुछ नहीं दिखाया गया, मानो बाजीराव के पास मस्तानी कर संग इश्क फरमाने के अलावा कोई काम ही ना हो, यहाँ तक कि क्षयरोग से पीड़ित उनकी पहली पत्नी को नृत्य करते हुए दिखाया गया जबकि सच्चाई यह हैं कि वो चलने फिरने में असमर्थ थी, उस पर भी विवाद हुआ पर अंततः फ़िल्म रिलीज़ हो गई।

अबकी बार भंसाली का टारगेट थी मेवाड़ की महारानी पद्मावती, लेकिन इस बार पानी सर के ऊपर से चला गया, आखिर बर्दाश्त की भी कोई सीमा होती हैं जो अब समाप्त हो गयी हैं।

राजपूत संगठन कर्णी सेना  की अगुवाई में तमाम हिन्दू समाज ने इस फ़िल्म के विरोध में बिगुल फूंक दिया और फिलहाल अभी फ़िल्म की रिलीज़ पोस्टपोंड हो गयी हैं।

अब मीडिया का एक बड़ा तबका विरोध करने वाले कर्णी सेना को फ्रिंज एलिमेंट बोल रहा है, कुछ ने उसकी तुलना ISIS तक से कर दी। संजय लीला भंसाली ने भी चालाकी दिखाते हुए फ़िल्म सेंसर बोर्ड को दिखाने की बजाय कुछ पत्रकारो को दिखा दी जिससे फ्री का प्रचार मिल सके।

ऐसे में जब अधिकांश पत्रकार कर्णी सेना को फ्रिंज एलिमेंट और राजघराने को पब्लिसिटी का भूखा बता कर खारिज़ कर रहे थे तब आज तक के पत्रकार रोहित सरदाना ने एक मुद्दा उठाया कि दुसरे पक्ष की बात को भी सुना जाए, उनके इशूज को भी एड्रेस किया जाए उनका कहना था कि जब आप पत्रकारो को फ़िल्म दिखा सकते है तो राजघराने और राजपूत समाज के नुमाइंदों को क्यों नहीं? अभिव्यक्ति की स्वतंन्त्रता के नाम पर आप राधा और दुर्गा के लिए तो आपत्तिजनक शब्दो का प्रयोग कर सकते हैं पर कभी आयशा फातिमा के नाम पर ऐसी फिल्में या गीत बनाने का साहस नहीं जुटा पाते"। मीडिया के इस दोगलेपन पर चोट क्या की सरदाना जी ने की गाज़ियाबाद से लेकर गाजीपुर तक और मुम्बई से लेकर दुबई तक से उनको और उनके परिवार को जान से मारने की धमकी देने वाले कॉल आना शुरू हो गए और देशभर के थानों में उनके खिलाफ FIR दर्ज हो गयी।

कुछ लोग हमको सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते है, हमसे कहाँ जाता है कि हम कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर OMG, PK, सेक्सी दुर्गा, बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्में झेले और अपने भगवान महापुरुषों वीर योद्धाओं का अपमान बर्दाश्त करें और फिल्मकारों को मोटा मुनाफा कमाने दें, वहीं दूसरी तरफ जब एक पत्रकार इस दोहरे मापदंड पर सवाल उठाते हुए एक ट्वीट कर दे तो कुछ लोग उनको और उनके परिवार को जान से मारने की धमकी देने लगे तब वही लोग जो सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं वो मौनमोहन बनकर बैठ जाते हैं, आखिर ऐसा दोगलापन क्यों?

हम उन सभी लोगो से पूछते है की कहाँ है वो लोग जिनको अखलाक रोहित वेमुल्ला गौरी लंकेश के समय देश मे असहिष्णुता दिखने लगती थी पर अपने ही साथी पत्रकार को मिली धमकी पर सन्नाटा छा जाता है। जो ट्विटर ट्रोल पर लंबे लंबे आर्टिकल लिख देते है पर एक राष्ट्रवादी पत्रकार की अभिव्यक्ति की स्वतंन्त्रता के समर्थन में एक ट्वीट भी नही कर पाते?

कहने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी विधारधारा से परे है, पर जब विरोधी विचारधारा का व्यक्ति अपने फंडामेंटल राइट को एक्सरसाइज करता है तो एक भी वामपंथी पत्रकार उसके समर्थन में खड़ा नहीं होता, ऐसा डबल स्टैंडर्ड क्यो?

वहीं दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी किसी को फॉलो कर ले और वह व्यक्ति किसी पत्रकार को ट्रोल कर ले तो यही लोग प्रेस क्लब जाकर छाती पीटते है प्रधान मंत्री के खिलाफ, जैसे की वो अपनी हर ट्वीट मोदी जी से पूछ के करता हो।

समस्या हमें कट्टरपंथी जिहादी मानसिकता वालो से नहीं है, उनकी जो संकीर्ण सोच है धर्म को ले कर उसको उन्होंने कभी छुपाया नहीं, बल्कि उसका खुल के प्रदर्शन किया हैं, ऑस्ट्रेलिया फ्रांस से ले कर अमरीका तक इन लोगो ने इस्लाम के खिलाफ लिखने वालों पर हमले किये।

हमारा सवाल तो उन तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग से है जो सेकुलरिस्म और लिबेरल का लिबाज ओढ़े बैठे है lutyen zone में, पर असल में वो सभी लोग सिर्फ और सिर्फ हिन्दू विरोधी हैं। यह दोहरा मापदंड आज से नहीं बल्कि 80 के दशक से है जब सलमान रुश्दी की satanic verses को राजीव गांधी सरकार ने भारत में प्रतिबंधित कर दिया था। तस्लीमा नसरीन और तारिक फतह पर भी कई बार हमले हो चुके हैं यहाँ तक कि लिटरेचर फेस्टिवल में इनके बोलने पर भी रोक लगी हुई हैं।

रोहित सरदाना उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते है जो राष्ट्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी को सर्वोपरि रखता है और उस पर सवाल उठाने का माद्दा भी लेकिन ऐसे चंद राष्ट्रवादी पत्रकारो को भी डरा धमका कर चुप कराने की कोशिश हो रही हैं। ऐसे में फिर कोई पत्रकार हिम्मत नहीं जुटा पायेगा जो अपने पेशे से जुड़े लोगों के दोगलेपन पर सवाल उठाने की हिम्मत रखता हो।

अब इस खबर को ही देखिए, अगर कोई व्यक्ति  इस खबर की सिर्फ हैडलाइन देखे और पूरी खबर न पढ़े तो उसको क्या लगेगा, यही ना कि पत्रकार ने हिन्दू देवी को ले कर ट्वीट किया और किसी हिंदूवादी ने उसके खिलाफ थाने में FIR दर्ज करा दी जबकि खबर इसके एकदम इतर है।

सोचिए अगर रोहित सरदाना की जगह रवीश कुमार होते तो और हिन्दू संगठन धमकियां दे रहे होते तो इन्हें अब तक तो प्रधानमंत्री तक का इस्तीफा मांग लेना था, खैर कुछ राष्ट्रवादी पत्रकार हैं जो रोहित के साथ खड़े है, उनमें से आज तक कि ही पत्रकार श्वेता सिंह लिखती हैं

वेदांक सिंह कहते हैं



अब यह वीडियो देखिये, देश मे दलित आदिवासियों से भी बुरी हालत मुसलमानों की है ,ये धर्म के झंडाबदार अपनी कौम के पंचर लगाते और कबाड़ बेचते लोगो की मदद तो कभी किये नहीं होंगे पर पत्रकार के सर पर 1 करोड़ का इनाम रख रहे है, ऐसे कौम के हालात सुधरेंगे? गरीब मुसलमानों को भी यह सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं, मजहब के नाम पर अफीम बांट रहे हैं, अफीम चाटो और भूल जाओ की पढ़ने की उम्र में उनके बच्चे कचड़ा बीन रहे हैं पंचर लगा रहे हैं। खैर ऐसे लोगो से क्या उम्मीद करनी? मेरा सवाल तो उनसे हैं जो कल ऐसा ही इनाम पद्मावती फ़िल्म के मेकर्स पर घोषित करने वाली करणी सेना की गिरफ्तारी की मांग कर रहे थे, क्या आज वो अपने ही पत्रकार बिरादरी के रोहित सरदाना के साथ खड़े होकर इस आतंकवादी अल्लामा हुसैनी को गिरफ्तार करने की माँग करेंगे या उनका सेकलुरिज्म इसकी गिरफ्तारी की मांग के आड़े आ जायेगा?


अंततः हम यही कहेंगे कि अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी है तो संविधान के अनुसार जिस हद तक है उस हद तक हर धर्म हर जाति हर वर्ग के व्यक्ति को दी जानी चाहिए। याद रखिये यह सोशल मीडिया का जमाना है, आपकी कही लिखी और बोली हर बात का रिकॉर्ड होता है और अब समय नहीं लगता किसी भी दोगले को नँगा करने में, इसलिये सचेत हो जाये और अपना डबल स्टैंडर्ड त्यागे।


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लेखक से ट्विटर पर मिले : अंकुर मिश्रा (@ankur9329 )






टिप्पणियाँ

  1. ये सब देश के राष्ट्र्यावादी लोगो का नाकामी का ही नतीजा .. है .. और कुछ पुलिस का भी जो अब तक ऐसे सूअर पर करबाई नहीं हुआ ..
    यदि ऐसा ही रहा तो देश के जनता का सरकार और पुलिस पर से बिस्वास उठ जायेगा ..

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